चंद लम्हें थे मिले,भींगी सुनहरी धूप में, हमने सोचा हँस के जी लें,जिन्दगानी फिर कहाँ
Friday, July 24, 2009
मंदी..अभी और कितने दिन
मंदी मे सब बदल रहे है,साधु, नेता,चोर,
सबके बिजनेस पे छाया है,इस मंदी का ज़ोर,
कहाँ मुनाफ़ा यही सोच कर, सभी लगे तैयारी मे,
साधु बाबा भी अब तो ,फँस जाते है बमबारी मे.
पर नेता को नही फ़र्क है,ना मंदी का कोई गम है.
इस मंदी के महादौर मे, जनता से मिलते ही कम है,
उन्हे सुरक्षा का डर है,इस असुरक्षित जनता से,
दुर्जन भी भयभीत हुए है,अब तो सज्जनता से.
इनकी क्या मंदी होगी, ये तो जनता का खाते है,
लूट खसोट ग़रीबो को ये,अपना माल बनाते है,
हार,जीत,मंत्री,सत्ता, सब कुछ नोटों का खेल है,
उनकी महागणित के आगे,आज गणित हर फेल है,
मंदी मंदी कहते कहते थक गयी जनता सारी,
कब तक रहेगी मंदी जैसी इतनी बड़ी बीमारी,
अब तो फिर से वही पुराना,दिन आ जाए तो अच्छा,
फिर से खुशियाँ लौट पड़े,अपने द्वारे पर ,तो अच्छा.
जब हम फिर से लहराएँगे,वो दिन लौट के कब आएँगे,
सूखे मुरझाए चेहरों पे, खिलत चंद्रमा कब छाएँगे,
कितनो के घर बिखर गये, अब भी क्या कुछ बाकी है,
डूब रही है अर्थव्यवस्था, वो कहते तैराकी है,
आएगा फिर से वो सावन, आँखे बोझिल मत होने दो,
नया सवेरा फिर से होगा,स्वाभिमान को मत रोने दो,
उलझन के चादर से निकलो,ईश्वर घर अंधेर नही,
रात घनी घनघोर गयी तो,कल आने मे देर नही.
Sunday, July 19, 2009
रात से मेरा रिश्ता पुराना हुआ, चाँद के घर मेरा आना जाना हुआ|
रात से मेरा रिश्ता पुराना हुआ,
चाँद के घर मेरा आना जाना हुआ|
यह न पूछो हुआ,
कब व कैसे कहाँ,
धड़कनों की गुज़ारिश थी,
मैं चल पड़ा,
बेड़ियाँ थी पड़ी,
ख्वाइसों पर बड़ी,
उल्फतों के मुहाने पे,
मैं था खड़ा,
कुछ न आया नज़र,
बस यहीं था लहर,
ढूढ़ लूँगा कही,
मैं कभी ना कभी,
इस ज़मीं पर नही,आसमाँ मे सही,
बादलों के शहर मे ठिकाना हुआ|
रात से मेरा रिश्ता पुराना हुआ,
चाँद के घर मेरा आना जाना हुआ|
इश्क मजबूर था,
प्यार मे चूर था,
जब हुआ था असर,
तब हुई ना खबर,
खामखाँ बीती रातें,
वो मोहब्बत की बातें,
कर रही थी पहल,
मन रहा था मचल,
हमनशीं,हमनवां,
क्या पता है कहाँ,
जो मिले गर सनम,
ए खुदा की कसम,
जो कभी मुझसे उस पल बयाँ ना हुआ|
रात से मेरा रिश्ता पुराना हुआ,
चाँद के घर मेरा आना जाना हुआ|
सच कहूँ,अब लगा,
उसमे कुछ बात थी,
सूख सावन रहा,
जिसमे बरसात थी,
सोच मे मैं रहा,
बेखुदी ने कहा,
जो थी दिल मे बसी,
चाँद सी थी हसीं,
क्या पता वो कहाँ,
चाँद का कारवाँ,
अब सजाती हो वो,
छुप के हौले से,
मुझको बुलाती हो वो,
जिसको देखे कसम से जमाना हुआ,
रात से मेरा रिश्ता पुराना हुआ,
चाँद के घर मेरा आना जाना हुआ|
अब तो ये आस है,
एक विश्वास है,
वो छुपी हो भले,
चाँद तो पास है,
सोचकर आजकल,
साथ लेकर ग़ज़ल,
आसमाँ की गली,
रोज जाता हूँ मैं,
जिंदगी ख्वाब से,
अब बनाता हूँ मैं,
जिस हसीं ख्वाब से,दिल बहलता न था,
अब वहीं दिल्लगी का बहाना हुआ,
रात से मेरा रिश्ता पुराना हुआ,
चाँद के घर मेरा आना जाना हुआ|
Saturday, July 11, 2009
दीदी की दरियादिली-भारतीय रेल बज़ट
माँ,माटी का अलख जगा कर,मानुष को भरमाया है,
दरियादिली नही दीदी की,यह दीदी की माया है.
चाहत बस मुठ्ठी भर थी,वो आसमान ही भर डाली,
जीवन रेखा है ग़रीब की रेल,उन्होने समझायी,
करो न्याय अब तुम्ही,ग़रीबों के हिस्से मे क्या आयी,
विश्वस्तरीय स्टेशन से क्या, ग़रीब को मतलब है,
बज़ट बगीचें में उनके जो सबसे सुंदर खिलता था,
उन्हे मिला वो जनरल डिब्बा, जो पहले भी मिलता था,
बज़ट ग़रीबों का जनरल से,कभी नही बढ़ पाया है,
दरियादिली नही दीदी की,यह दीदी की माया है.
मोबाइल वैंनो से टिकटों का खरीद आसान किया,
लंबी दूरी की ट्रेनो मे, ए.सी का अभियान किया,
पेट भरे बस इतना पाते,क्या उनको ये फबती है,
ए. सी.,वे. सी. से उनके तो, मन में आग सुलगती है,
कितने बड़े बड़े किस्सें क्या,इसको सच कर पाएँगी,
कुछ ट्रेनो का रूप बदल कर,दो मंज़िल बनवाएँगी,
रोज़गार तब बढ़ जाएँगे,समझ रहे, इसके माने,
कहने मे आसान बहुत है,सच कर दे तो फिर जाने,
सीधी सादी जनता को, अच्छे से खूब लुभाया है,
दरियादिली नही दीदी की,यह दीदी की माया है.
बना दो हर स्टेशन को तुम चाहे ,जितना भी सुंदर,
समय मिले तो कभी नज़र डालो तुम,ट्रेनो के अंदर,
भ्रष्टाचार वहाँ कितना है,उसके बारे मे सोचो,
छोड़ो बात ग़रीबों की तुम,बाकी बारे मे सोचो,
जहरखुरानों के बारे मे, भी तुम कुछ चर्चा करती,
लूटपाट ट्रेनो मे कम हो, कुछ इस पर खर्चा करती,
ऐसे आतंको को दीदी, जनमानस से दूर करो,
मुक्त करो भय से जनता को,उसको मत मजबूर करो,
मत भूलो उस जनता को,जिसने कुर्सी दिलवाया है,
दरियादिली नही दीदी की,यह दीदी की माया है.
रेल बज़ट इस बार का देखो,दोहरी मानसिकता पाया,
मानव को पीछे छोड़ा और अर्थ का चेहरा दिखलाया,
होटल शॉपिंग कांप्लेक्सों मे पैसें सभी उड़ाएँगे,
धनवर्षा से मंत्रालय के गलियारें भर जाएँगे,
चलो ठीक है चकाचौंध तुम स्टेशन पर करवा दो,
मगर गाँवों के क्रासिंग पर भी,एक-दो फाटक धरवा दो,
लोग जहाँ ट्रेनो को सिटी सुन कर ही डर जाते हैं,
खेल खेल मे नन्हे बचपन, कट कर के मर जाते हैं,
सोचो, माँ की आँखों मे आँसू, क्यों ऐसे आया है.
दरियादिली नही दीदी की,यह दीदी की माया है.
उस दिल का अरमान रखो,जिस दिल ने तुम्हे बसाया है.
दरियादिली नही दीदी की,यह दीदी की माया है.
Sunday, July 5, 2009
इंसान की खोज
बंद दीवारों मे खुला आसमान ढूढ़ने चला था,
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था.
दुनियाँ जहाँ देखने में सब कुछ हरा है,
सुख एवम् दुख का पर्याप्त साधन भरा है,
सच्चाई जहाँ, बस किताबों में हैं,
मुस्कुराहट तो अब बस नकाबों में हैं,
लोगों के चेहरों पर मुस्कान ढूढ़ने चला था,
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था.
दर्द भुला दिए थे,जो भी दर्द मिले,
राह के साथी हज़ारों हमदर्द मिले,
अंजान था,कि सब जख्म देखने वाले थे,
घाव भरने नही,वो तो बस कुरेदने वाले थे,
मैं वहीं पर मरहमी समान ढूढ़ने चला था,
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था.
रोज जहाँ बदल जाते हैं,रिश्ते,
कभी कभी हैरान हो जाते हैं,फरिश्ते,
मोह,ममता जहाँ विक्षिप्त पड़ा है,
स्वार्थ,लालच मे मानव लिप्त पड़ा है,
वहाँ मैं रिश्तों की अहमियत का ज्ञान ढूढ़ने चला था,
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था.
जहाँ रोजाना कुंठित होती है,ग़रीबों की आशाएँ,
अपमानित हो रही हैं,देश धर्म और भाषाएँ,
जात-पाँत का जहर घुल रहा है,समाज मे,
आत्माएँ मर रही हैं,बेईमानो के इस राज मे,
बेपरवाह होकर मैं,ईमान ढूढ़ने चला था,
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था.
दोस्ती के नाम पर नफ़रत के बीज बोते हैं,
प्यार, भावनाएँ और अहसास जहाँ रोते हैं,
जहाँ सामाजिक ठेकेदारों को पुरस्कार दी जाती हैं,
जहाँ जन्म से पहले कन्याओं को मार दी जाती हैं,
उन्हीं पत्थर की मूरतों में मैं जान ढूढ़ने चला था,
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था.
फिर भी बैठ कर मैं,करता हूँ उम्मीद,
होगी ज़रूर कभी इंसान की दीद,
अरमानों की होली कभी तो बंद होगी,
कभी तो हमें इंसानियत पसंद होगी,
तब फिर से ,मानवीय पहचान ढूढ़ने चलूँगा,
मायूस नही लौटूँगा तब,जब इंसान ढूढ़ने चलूँगा.