Saturday, March 27, 2010

अलबेला खत्री जी की दिल्ली यात्रा पर आयोजित ब्लॉगर्स मिलन समारोह का आँखो देखा हाल वहीं मेरे अपने पुराने अंदाज में----(विनोद कुमार पांडेय)

आपसी प्रेम और सौहार्द के फूल खिले,

दिल्ली में आज एक बार फिर कुछ ब्लॉगर्स मिलें,

कुछ ब्लॉगर्स,कुछ कवि,कुछ व्यंगकार हैं

पर एक बात सच्ची है,

सभी के सभी बहुत बड़े कलाकार हैं.


हमें भी एक दिन पहले से जानकारी थी,

तो हम भी पहुँच गये थे,

अब थोड़े डीटेल में आता हूँ,

और कौन कौन नामचीन थे,

ये भी बताता हूँ.


सबसे पहले शुरुआत करता हूँ,

ब्लॉगर्स,कवि,लाफ्टर चैम्पियन,और एक नेक दिल इंसान,

अलबेला खत्री जी के बारे में,

उनसे मिलने का बहुत दिनों से मन था,

और उन्ही से मिलने के लिए तो यह सम्मेलन था.


बड़ी खुशी हुई उन्हे अपनो के बीच देख कर,

जिन्हे हम टी. वी. पर देखा करते हैं,

मिलते ही हम तो फूले ही नही समाए,

तभी मिठाई का प्लेट अलबेला जी हमारे सामने लाए,

रास्ते की सारी थकान वहीं पर मिट गई,

प्लेट की सारी रसगुल्ली एक एक कर के निपट गई,


अब आप पूछेंगे और कौन थे,

तो हम बताएँगे,

कुछ और नाम सुझाएँगे,

जो बाई-डीफाल्ट हर सम्मेलन में मिल जाते हैं,

और जोरदार उपस्थिति से सम्मेलन को सफल बनाते हैं,

उनमें एक नाम है अविनाश वाचस्पति चाचा जी,

दूसरे हैं कनिष्क जी,खुशदीप सहगल जी और बागी काका जी,

पवन चंदन जी,प्रवीण शुक्ला जी,शशि शिंघॅल जी,

हमारी उपस्थिति का भी थोड़ा बहुत असर था,

और राजीव तनेजा जी और संजू भाभी जी का तो घर ही था.


कार्टूनिस्ट इरफ़ान जी भी हमारे बीच थे,

पर अजय झा जी और वर्मा जी हमारे बीच नही रहें,

हम दोनो की टाइमिंग सेट नही हुई,

शायद हम लेट पहुँचे थे,इसलिए भेट नही हुई,

अजय जी का मेट्रो स्टेशन से वापस लौटने का किस्सा था,

मगर सम्मेलन को सफल बनाने में उनका भी हिस्सा था

वर्मा जी हमारे आने से पहले ही जा चुके थे,

पर अपनी उपस्थिति पहले ही दर्ज करा चुके थे.


अब सम्मेलन के सबसे अहम पहलू पर आता हूँ,

अलबेला खत्री जी ने चर्चा की ब्लॉगिंग के भविष्य का,

सरकार को भी कुछ सोचना चाहिए कि कैसे,

और अधिक हिन्दी का विकास हो,

साथ ही साथ अच्छे ब्लॉगर्स का उत्साह भी बढ़ाने का प्रयास हो,

थोड़ी देर में अलबेला जी ने चर्चा रोक दी,

उन्होने एक कहा, हमने दो मजेदार कविताएँ झोंक दी,

फिर क्या बारी बारी से सब लग गये,

कविताएँ सुनाने में,गीत गाने में,

राजीव जी का व्यंग,बागी काका की दमदार कविताएँ,

और अविनाश जी की मुख्यमंत्री जी की चिट्ठी वाली व्यंग,

ने सब को खूब हंसाया था,

प्रवीण जी की कविता और खुशदीप जी के स्लॉग ओवर,

का जादू भी सम्मेलन पर छाया था.


अंत में अलबेला जी ने चंद बेहतरीन मुक्तक से दिल जीत लिए,

बड़ी ही रोचक और सार्थक चर्चा हुई,

खाने पीने पर भी बहुत खर्चा हुई,

हर मिनट पर खाने पीने का इंतज़ाम,

राजीव जी ने बहुत बढ़िया ढंग से किया था,

जिसमें संजू भाभी ने पूरा सहयोग दिया था,

चिप्स,नमकीन,बिस्किट,चाय,कोल्ड-ड्रिंक सब आया था,

पर हमने सारा ध्यान पकौड़े पर ही लगाया था,

वैसे हमीं ने ही नही सभी ने खूब जम कर खाया था,

अभी शाम तक सभी के पेट भारी हैं,

और सब संजू भाभी के बहुत ही आभारी हैं.


अब कविता बंद करता हूँ,

नही आप कहेंगे बहुत बकवास करता है,

एक छोटे से सम्मेलन को इतना खास करता है,

पर यह बहुत खास है,क्योंकि आने वाले कल में यहीं ब्लॉगिंग का इतिहास है.


हिन्दी और समस्त हिन्दी ब्लॉगर्स की जय!!!

Saturday, March 20, 2010

रिश्ते भी चलचित्र बनें हैं दुनिया में--------(विनोद कुमार पांडेय)

जिनके चरण,आचरण दोनों दूषित हैं,
देखो वहीं पवित्र बनें हैं दुनिया में,

जिस मूरत पर श्रद्धा से सर झुक जाता है,
उनके भद्दे चित्र बनें हैं दुनिया में,

मेरी आँखों में आँसू वो हँसते है,
ऐसे ऐसे मित्र बनें हैं दुनिया में,

एक दिखावा,एक छिपा कर रखते हैं,
सबके अलग चरित्र बने हैं दुनिया में,

इंसानों को ईश्वर सा सम्मान मिला,
इंसा ही अपवित्र बनें हैं दुनिया में,

मायावी मानव की माया की मद में,
रिश्ते भी चलचित्र बनें हैं दुनिया में.

Sunday, March 14, 2010

उतर गया था बुखार सारा,पड़े जो जूते तेरी गली में-------(विनोद कुमार पांडेय)

आदरणीय पंकज सुबीर जी द्वारा होली के तरही मुशायरे के लिए दिए गये मिसरे पर आधारित एक मजेदार रचना.


सुबह सवेरे जो घर से निकले, खुमारी होली थी सर पे छाई,

हज़ार रंगों से रंग चेहरा, तुम्हारे घर को कदम बढ़ाई,

यूँ झूमते हम निकल पड़े थे, इब्न-बतूता का गीत गाकर,

नज़र न आया वो गंदा नाला,जहाँ गिरे हम छटक के जाकर,


नशा वहीं पर हुआ था गायब, सुधर गये हम तेरी गली में,

उतर गया था बुखार सारा, पड़े जो जूते तेरी गली में,


वहाँ से जैसे बढ़े थे आगे, जो देखे हमको लगे खिझाने,

छटांक भर के वो सारे लड़के,लगे हमारी हँसी उड़ाने,

फटी बनियान, फटी थी टोपी,व चेहरा जैसे कोई निशाचर,

पड़ी जो भाभी मेरे सामने, मैं भागा सरपट नज़र झुकाकर,


लजाती नज़रें बता रहीं थी, मेरी कहानी तेरी गली में,

उतर गया था बुखार सारा, पड़े जो जूते तेरी गली में,


तुम्हारी अम्मा ने हमको देखा,लगी थी बाबू जी को बुलाने,

खड़ा है देखो भिखारी कोई, इसे दिला दो दो-चार दाने,

वो गुझिया-पापड़ दिया था तुमने,समझ के कोई भिखारी टोली,

तुम्हारे अब्बा के डर से हमने, तनिक न अपनी ज़ुबान खोली,


गली के कुत्ते भी मेरे पीछे,निकल लिए थे तेरी गली में,

उतर गया था बुखार सारा, पड़े जो जूते तेरी गली में.


रहेगी हमको ये याद होली,ज़रा सी ग़लती क्या गुल खिलाई,

कई बरस हमने खेली होली,न ऐसी नौबत कभी थी आई,

बना था ज़ीरो जो कल था हीरो,नशे ने सब कुछ बिगाड़ डाली,

की जैसे पहुँचा मैं अपने घर पर,मिली थी स्वागत में माँ की गाली,


न पूछो कैसे मनाया हमने, हमारी होली तेरी गली में,

उतर गया था बुखार सारा, पड़े जो जूते तेरी गली में.



Thursday, March 11, 2010

अपने ही समाज के बीच से निकलती हुई दो-दो लाइनों की कुछ फुलझड़ियाँ-4(विनोद कुमार पांडेय)

वृक्षों के मन-भाव को,कौन करे महसूस,
नेता,पुलिस,बिचौलिए,बाँट रहें सब घूस.

सबसे रो कर कह रहें,पीपल,बरगद,नीम,
सिर्फ़ प्रदर्शन ही बना,हरियाली का थीम.

वृक्ष लगाओ,धरा पर,गावत फिरे समाज,
पर करनी ना कछु दिखे,कहत न आवे लाज.

हरियाली हरि सी भई,दुर्लभ तरु की छाँव,,
पत्ते-पत्ते चीखते,शहर से लेकर गाँव.

पुष्प की सतरंगी लड़ी,गुलशन में गायब,
तुलसी बेबस हैं पड़ीं,मगर मौन है सब.

अब कागज के फूल से, सज़ा रहे घर-बार,
गेंदा और गुलाब की,चर्चा है बेकार.

Saturday, March 6, 2010

जाड़े के दिन से जुड़ा मेरा एक अनुभव-२(विनोद कुमार पांडेय)

कोहरे से घिरे आदमियों के,
भीड़ में,मैने एक और अजीब दृश्य देखा,
यूँ कहें इक्कीसवीं शताब्दी के,
विकसित भारत का एक सूक्ष्म उदाहरण,
भारत की भावी पीढ़ी,
एवम् उसका भविष्य देखा,
बदन पर मात्र एक सूती वस्त्र डाले,
नंगे पैर,और आँखों में भूख लिए हुए,
मूँगफली के छिलकों के ढेरों को,
शाम का नाश्ता ढूढ़ रहा था,
तनिक भी भय नही था,
उस भीषण ठंड का,
बहादुरी नही,यह उसकी लाचारी थी,
जब भूख की आग,
मौसम के उस शीतलहर पर भारी थी.

अनुभव की इस कड़ी में,
जहाँ हमने विषमता देखी,
वही एक माँ की ममता भी देखी,
जो अपने वस्त्रों के टुकड़े कर,
अपने नवजात को ठंड से बचा रही थी,
और खुद हवा के तेज थपेड़े खा रही थी.

जाड़े का वह दिन,
मैं सोचने पर विवश हुआ,
संसार की विविधता,
सोचने पर विवश हुआ,
आख़िर क्यों एक आम ग़रीब आदमी की जिंदगी,
इस कदर तंगहाल है,
जहाँ आधी दुनिया अपने घरों में,
खुशियाँ मनाती है,
वहीं ग़रीबों को एक मुस्कान,
भी बड़ी मुश्किल से आती है,
एक ओर तो लोग मौज करते है,
और एक ओर ये बेचारे,
गर्मी में लूँ से,
बरसात में पानी से,
जाड़े में ठंड से मरते है.

अब तक इस प्रश्न का जवाब ढूढ़ रहा हूँ,
जिसका उत्तर शायद ही किसी के पास हो!!!

Tuesday, March 2, 2010

जाड़े के एक दिन से जुड़ा मेरा एक अनुभव-१( विनोद कुमार पांडेय)

दिन का तीसरा पहर,
जब ठंड अपनी परिसीमा पर था,
सरसराती हवा के झोंके,
मंद गति से बह रहे थे,
जल की ठंडी-ठंडी बूँदे,
कानों में बादलों का,
फरमान पढ़ रहे थे,
समस्त वातावरण जब ठंड के,
आगोश में ढल रहा था,
जैसे रात्रि के आगमन का,
पूर्वाभ्यास चल रहा था,
जब सूरज की किरणें भी,
आसमाँ तक ही सिमट गयी थी
और जब यह धरा पूर्ण रूप से,
कोहरे से पट गयी थी.

बस ऐसा ही वो वक्त था,
राह से गुजरते हुए मैने,
अपनी इन आँखों ने देखा,
इस दुनिया के अलग-अलग रंग,
जाड़े की कपकपाती ठंड में,
कई जीवंत दृश्य सामने आए,
आधुनिकता,भौतिकता,ममता,
तीनों ने अपने वास्तविक स्वरूप दिखलाए.

प्रकृति के इस भयावह दौर में,
जहाँ एक ओर,
सर से पाँव तक गर्म वस्त्रों में ढका मानव,
जाड़े से आँख-मिचौली खेल रहा था,
वहीं दूसरी ओर,
मटमैली सी फटी चादर में ठिठुरता,
बचपन मौसम की मार झेल रहा था.

ठंड निवारक यंत्रो से सुसज्ज्जित,
सड़क के बीचोबीच दौड़ती वाहनों में,
सुरक्षित मनुष्य का एक वर्ग,
एक जाति,एक समुदाय,एक परिवार,
और वहीं सड़क से ठीक सटे,
नालों के पार बसा,
एक दूसरा संसार,
जिन्हे मिली थी बस एक अधखुली झोपड़ी,
ताकि बस किसी तरह गुजर-बसर कर सकें,


वो लोग जिन्हे हम गरीब कहते है,
वैसे तो इसी दुनिया के अंग हैं.
पर दुनिया के हो कर भी गुमसुदा है,
क्योंकि इस चमक-दमक की दुनिया में,
वो लोग भौतिकता से बिल्कुल जुदा हैं.

भगवान की दुआ कहें,
या सरकारी रहम,
जो उनके लिए थोड़ी सी अलाव,
की व्यवस्था हो जाती है,
बस इतनी रहम पर हाथ सेंक कर,
गरीब की आत्मा सो जाती है,
वरना इस कड़कड़ाती ठंड में,
काँपते हुए,
दुनियादारी में मिले ज़ख़्मों को,
अपने अपनों में बाँटते हुए,
बातों ही बातों में रात गुज़ार देते है.