Tuesday, November 30, 2010

दिल में राम बसा कर देखो--(विनोद कुमार पांडेय)

नवंबर का पूरा महीना ग़ज़लों को समर्पित करते हुए आज आप सभी का स्नेह और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए एक और ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ॥

घृणा-बैर मिटा कर देखो
नेह के बीज उगा कर देखो

मन-मंदिर सब एक बराबर
दिल में राम बसा कर देखो

अपनों की रुसवाई देखी
गैरो को अपना कर देखो

सुख-दुख जीवन के दो पहलूँ
ऐसा ध्येय बना कर देखो

स्वर्ग-नर्क सब धरती पर है,
घर से बाहर आ कर देखो

बहरी है सरकार हमारी,
चाहो तो चिल्ला कर देखो

होती है क्या ज़िम्मेदारी
घर का बोझ उठा कर देखो


कितनी कीमत है रोटी की
निर्धन के घर जाकर देखो

Thursday, November 25, 2010

एक और व्यंग्य ग़ज़ल----(विनोद कुमार पांडेय)

व्यंग्य ग़ज़लों का सिलसिला जारी रखते हुए अपने सीधे-सादे लहजे में प्रस्तुत करता हूँ एक और ग़ज़ल|आप सब के आशीर्वाद का आपेक्षी हूँ.


चारो ओर मचा है शोर
सब अपनें-अपनों में भोर

बच कर के रहना रे भाई
बना आदमी आदमख़ोर

इंसानों ने सिद्ध कर दिए
रिश्तों की नाज़ुक है डोर

नज़र उठा कर देखो तो
है ग़रीब,सबसे कमजोर

अजब-गजब के लोग यहाँ
बाप सिपाही,बेटा चोर

जिसको कोई कमी नही हैं
उसका भी दिल माँगे मोर

Friday, November 19, 2010

चमचों का जलवा---(विनोद कुमार पांडेय)

सरकारी ऑफीस से लेकर प्राइवेट स्कूल तक सब जगह चमचे भरे पड़े है.जो पब्लिक और ऑफीसर के बीच रह कर काम करते अधिकारी वर्ग उनकी ही बात सुनते है और आम जनता चमचों की मध्यस्थता से परेशान हो जाती है..उसी सन्दर्भ में एक व्यंग ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ....आशीर्वाद दीजिएगा.


जगह-जगह सरकारी चमचे
पब्लिक की लाचारी चमचे

मंत्री जी को भी पसंद है
पढ़े-लिखे अधिकारी चमचे

शहद घुली सी मीठी बोली
लगते हैं मनुहारी चमचे

सब होगा बस रुपया दो
इतने तो हितकारी चमचे

थाना हो या कोर्ट-कचहरी
अफ़सर पर भी भारी चमचे

जनता को ठगने की डेली
करते हैं तैयारी चमचे

आम आदमी बंदर जैसा
डमरू लिए मदारी चमचे

दुनिया चमचों का मेला है
मिलते बारी बारी चमचे

Saturday, November 6, 2010

जो अंधों में काने निकले,वो ही राह दिखाने निकले---(विनोद कुमार पांडेय)

जो अंधों में काने निकले
वो ही राह दिखाने निकले

उजली टोपी सर पर रख के,
सच का गला दबाने निकले

चेहरे रोज बदलने वाले
दर्पण को झुठलाने निकले

बातें,सत्य अहिंसा की है,
पर,चाकू सिरहाने निकले

जिन्हे भरा हम समझ रहे थे
वो खाली पैमाने निकले

मुश्किल में जो उन्हें पुकारा
उनके बीस बहाने निकले

कल्चर को सुलझाने वाले
रिश्तों को उलझाने निकले,

नाले-पतनाले बारिश में,
दरिया को धमकाने निकले,

माँ की बूढ़ी आँखे बोली,
आंसू भी बेगाने निकले

पी. एच. डी. कर के भी देखो
बच्चे गधे उड़ाने निकले