Monday, March 28, 2011

कुछ मुक्तक २----(विनोद कुमार पांडेय)

मित्रों,एक लंबे अंतराल के बाद फिर से आया हूँ|अलग-अलग रंग के चार मुक्तक प्रस्तुत कर रहा हूँ|कुछ ठीक-ठाक बन पड़ा हो तो आशीर्वाद दीजिएगा|धन्यवाद

काँटों पे हमें चलने की,आदत सी हो गई
अब आग में भी जलने की,आदत सी हो गई
उँचाइयों से डर मुझे, बिल्कुल नही लगता
गिर कर के संभलने की,तो आदत सी हो गई


कैसी विडंबना है,गाँधी के देश में
डाकू टहल रहें हैं,साधु के वेश में
जनता के सच्चे सेवक,जनता को लूटकर
रखते है माल अपना,जाकर विदेश में


घोटाले,बेईमानी,भ्रष्टाचार देखिए
सिद्वांतवादिता यहाँ बीमार देखिए
चोरों की ठाठ-बाट है,मँहगाई ज़ोर पर
लाचार,मौन देश की सरकार देखिए


बाँटोगे अगर प्यार, तो फिर प्यार मिलेगा
व्यवहार के अनुसार ही, व्यवहार मिलेगा
हँस कर मिलोगे तुम तो,हँस कर मिलेंगें सब
बाजार बनोगे तो बाजार मिलेगा

Monday, March 7, 2011

कुछ मुक्तक १---(विनोद कुमार पांडेय)

काफ़ी दिनों के बाद इस बार एक नये प्रयोग के साथ आया हूँ|आप सबको मेरे गीत और ग़ज़ल पसंद आते रहे उसके लिए तहे दिल से धन्यवाद|आज पहली बार कुछ मुक्तक प्रस्तुत कर रहा हूँ,पसंद आए तो आशीर्वाद दीजिएगा|मुक्तक का विषय हमेशा की तरह मेरा पसंदीदा हास्य-व्यंग है|

1) बनते थे मेरे यार, आते नही नज़र
भूले सभी करार,आते नही नज़र
पहले तो रोज मिलते थे,होती थी हाल-चाल
जब से लिए उधार, आते नही नज़र

2) नफ़रत पनप रही है, अपनों की आड़ में
दुनिया लगी पड़ी है,अपने जुगाड़ में
कुछ ने बना लिया है,अब मूल-मंत्र ये
अपनी कटे मज़े में,सब जाएँ भाड़ में

3) गायब थे जो कल तक, वहीं मशहूर हो गये
धोखे-फरेब अब नये,दस्तूर हो गये
फैशन का भूत सबके, सर पर सवार है
बच्चें भी खिलौनों से बहुत दूर हो गये