विश्व अर्थव्यवस्था पिछले डेढ़ सालों से जूझ रही है..सबके जेहन मे यहीं प्रश्न है आख़िर कब तक यही हाल रहेगा.. अभी और कितने घर को बर्बाद करेगी यह मंदी......अब तक बहुत परिवर्तित हो चुका है..अब सब चाहते है..की बस.. मंदी..अब और नही..हम भी दुआ करते है..जल्द ही हम फिर से विकास के मार्ग व्यवस्थित पर आ जाएँ.....
मंदी मे सब बदल रहे है,साधु, नेता,चोर,
सबके बिजनेस पे छाया है,इस मंदी का ज़ोर,
कहाँ मुनाफ़ा यही सोच कर, सभी लगे तैयारी मे,
साधु बाबा भी अब तो ,फँस जाते है बमबारी मे.
पर नेता को नही फ़र्क है,ना मंदी का कोई गम है.
इस मंदी के महादौर मे, जनता से मिलते ही कम है,
उन्हे सुरक्षा का डर है,इस असुरक्षित जनता से,
दुर्जन भी भयभीत हुए है,अब तो सज्जनता से.
इनकी क्या मंदी होगी, ये तो जनता का खाते है,
लूट खसोट ग़रीबो को ये,अपना माल बनाते है,
हार,जीत,मंत्री,सत्ता, सब कुछ नोटों का खेल है,
उनकी महागणित के आगे,आज गणित हर फेल है,
मंदी मंदी कहते कहते थक गयी जनता सारी,
कब तक रहेगी मंदी जैसी इतनी बड़ी बीमारी,
अब तो फिर से वही पुराना,दिन आ जाए तो अच्छा,
फिर से खुशियाँ लौट पड़े,अपने द्वारे पर ,तो अच्छा.
जब हम फिर से लहराएँगे,वो दिन लौट के कब आएँगे,
सूखे मुरझाए चेहरों पे, खिलत चंद्रमा कब छाएँगे,
कितनो के घर बिखर गये, अब भी क्या कुछ बाकी है,
डूब रही है अर्थव्यवस्था, वो कहते तैराकी है,
आएगा फिर से वो सावन, आँखे बोझिल मत होने दो,
नया सवेरा फिर से होगा,स्वाभिमान को मत रोने दो,
उलझन के चादर से निकलो,ईश्वर घर अंधेर नही,
रात घनी घनघोर गयी तो,कल आने मे देर नही.
आयेगा फिर से वो सावन आँखें बोझिल मत होने दो
ReplyDeleteनया सवेरा फिर से होगा स्वाभिमान मत खोने दो
उलझन की चादर से निकलो ईश्वर घर आँधेर नहीं है
रात घनी घनघोर गयी तो कल आने मे देर नहीं है
कई दिन बाद आपकी पोस्ट आयी है तो जहिर था कि जरूर कोई खास बात है और अब सा्मने है ये अद्भुत सकारात्मक सोच लिये नयी पोस्ट मुझे लगता है इस साँत्वना की इस समय सब को जरूरत है बहुत ही सुन्दर खूबसूरत सामयिक रचना बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें
बहुत समसमायिक रचना है,
ReplyDeleteसाधुवाद!
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ग़ज़लों के खिलते गुलाब
नया सवेरा फिर से होगा, स्वाभिमान मत खोने दो,
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सकारात्मक विचारों का स्वागत ।
मंदी के दौर मैं आपकी रचना सुखद प्रेरणा ले कर आए आई.....
ReplyDeleteकाश, इसका धंधा जल्दी से मंदा होता।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
जनता तो होती ही लुटने पिटने के लिए है
ReplyDeletehttp://kajal.tk:)
Behtareen soch
ReplyDeleteआएगा फिर से वो सावन, आँखे बोझिल मत होने दो,
ReplyDeleteनया सवेरा फिर से होगा,स्वाभिमान को मत रोने दो,
उलझन के चादर से निकलो,ईश्वर घर अंधेर नही,
रात घनी घनघोर गयी तो,कल आने मे देर नही.
bahut hi sundar jagrook vichaar.badhai
सामयिक अच्छी रचना . बढ़िया बधाई.
ReplyDeleteraat ghani ghanghor ho gai
ReplyDeletekal aane main der nahi ...
waah waah
ati sundar.
renu...
अच्छी लिखा है आपने
ReplyDeleteहम आश लगा के बैठे हैं। ये मंदी की तंगी कब खत्म होगी।
आपकी उम्मीद फलीभूत हो..और मंदी के जाल से विश्व जल्दी हि मुक्त हो यही कामना है।
ReplyDeletesab se pahale mai yah kahana chaunga ki .....amin
ReplyDeletewah kal kal hi aa jaye ...........tahedil se yahi kahunga ki jitani bhi tarif ki jaaye aapaki wah kam hai .......bahut hi khubsoorat rchana hai .....bhagawan aapko lambi umara de
बहुत ही सकारात्मक सोच|बहुत ही सुंदर लिखा आपने लेकिन भाषा में कहीं थोड़ा सुधार होना चाहिए मुझे भाषा में पिछली कविताओ के मुक़ाबले कहीं कुछ कमी लगी| एक और कदम आगे बड़ाते हुए, आपने अपनी लेखनी में समसामयिक कविता का अभिनंदन किया|
ReplyDeleteरचना अच्छी
ReplyDeleteऔर मनोरंजक है
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विनोद जी मैने पहले भी इस रचना पर कमेन्ट दिया था वो क्यों नहीं छपा ये समझ नहीं आया आपकी ये रचना सम्सामयिक है फिर भी अने वाले कल के लिये एक आशा जगाती सकारत्मक अभिव्यक्ति है बधाई और शुभकामनायें
ReplyDeleteसकारत्मक अभिव्यक्ति,बधाई.
ReplyDeleteSarahniy Abhivyakti hai apki...badhai.
ReplyDelete"युवा" ब्लॉग पर आपका स्वागत है.
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत ख़ूबसूरत कविता लिखा है आपने! अब तो मैं आपका फोल्लोवेर बन गई हूँ इसलिए आती रहूंगी!
ReplyDeleteमेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है-
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आयेगा फिर से वो सावन,
ReplyDeleteआँखे गीली मत होने दो।
आशा का सन्देश देती सुन्दर कविता के लिए,
बधाई स्वीकार करें।
Kavita Jyada Achi Lagi Sir Jee. Badhai
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