Sunday, August 30, 2009

नेताजी की दुखी आत्मा, दोपहरी सी तपती है

एक हारे हुए नेताजी के जज़बात और ख़यालात..

नेताजी की दुखी आत्मा, दोपहरी सी तपती है।

देख शहर की जनता को,दिल मे आग भभकती है,
नेताजी की दुखी आत्मा, दोपहरी सी तपती है.

टिकट मिला जिस दिन,मत पूछो मन मे लड्डू फूट रहे,
सपने देखे बड़े बड़े , जैसे कि दौलत लूट रहे,
नित नित रूप बना कर के,ये लगे रिझाने जनता को,
भूल गये सब अपनी करनी,लगे मनाने जनता को,

आज वही सपना जब टूटा,रात न काटे कटती है,
नेताजी की दुखी आत्मा, दोपहरी सी तपती है.

जब से खड़े हुए है,साहिब,इस चुनाव के महासमर मे,
रूपिया खूब लुटाए फिरते,गाँव से लेकर शहर शहर मे,
सोच रहे थे की पैसे से, वोट खरीदा जाता है,
लेकिन चोट मिला इतना की, दर्द नही अब जाता है,

फिर भी देखो मुँह से कितनी मीठी बात टपकती है,
नेता जी की दुखी आत्मा,दोपहरी सी तपती है.

पाँच साल पहले जब जीते,तब तो गायब हुए जनाब,
अब भी चेहरे पर डाले है,सच्चाई का झूठ नकाब,
परख चुकी है जनता इनके, तरकश के सब तीरों को,
इसीलिए तो धूल चटाया ऐसे ,कायर वीरों को,

जीत नही पाए ये लेकिन,अब भी चाह पनपती है,
नेता जी की दुखी आत्मा,दोपहरी सी तपती है.

देख शहर की जनता को,दिल मे आग भभकती है,
नेताजी की दुखी आत्मा, दोपहरी सी तपती है.

20 comments:

  1. बहुत अच्छी रचना। आप में बहुत संभावनाएँ हैं।

    ReplyDelete
  2. इसीलिए तो धूल चटाई ऐसे कायर वीरों को ....इनका टी ऐसा ही हस्र होना चाहिए ....!!

    सुंदर रचना ....!!

    ReplyDelete
  3. पाँच साल पहले जब जीते,तब तो गायब हुए जनाब,
    अब भी चेहरे पर डाले है,सच्चाई का झूठ नकाब,

    SATY और SAARTHAK RACHNA है VINOD जी .......... NETAAON को AAINA DIKHAATI .......पर वो इतनी MOTI CHAMRI के हैं UNE FARK नहीं PADHTA ......... LAJAWAAB ABHIVYAKTI है..........

    ReplyDelete
  4. सृजन ही शक्ति है, यह कविता बतलाती है
    --->
    गुलाबी कोंपलें · चाँद, बादल और शाम

    ReplyDelete
  5. समसामयिक विषय पर बेहद खुबसूरत रचना लिखते है .......नेता जी की दुखी आत्मा,दोपहरी सी तपती है एक बेहद खुबसूरत रचना है ,आप ऐसे ही लिखते रहे और अपनी रचनाओ से सराबोर करते रहे ......बधाई!

    ReplyDelete
  6. मुझे तो लगता है इनकी खाल बहुत मोटी है कुछ असर नहीं होता मगर आपके शब्दों के वाण ही इतने तीखे हैं कि उन्हें उनका चेहरा दिखा दिया बधाई इस सार्थक रचना की

    ReplyDelete
  7. एक हारे हुए नेताजी के जज़बात और ख़यालात..

    नेताजी की दुखी आत्मा, दोपहरी सी तपती है।

    देख शहर की जनता को,दिल मे आग भभकती है,
    नेताजी की दुखी आत्मा, दोपहरी सी तपती है.
    वाह अति सुन्दर

    ReplyDelete
  8. पाँच साल पहले जब जीते,तब तो गायब हुए जनाब,
    अब भी चेहरे पर डाले है,सच्चाई का झूठ नकाब,
    परख चुकी है जनता इनके, तरकश के सब तीरों को,
    इसीलिए तो धूल चटाया ऐसे ,कायर वीरों को,

    जीत नही पाए ये लेकिन,अब भी चाह पनपती है,
    नेता जी की दुखी आत्मा,दोपहरी सी तपती है.

    सच को बयां करती रचना सराहनीय है.बधाई!!!

    ReplyDelete
  9. नेता जी के मन कि थाह पाना तो शायद बहुत ही मुश्किल है, क्योंकि इन सफ़ेद हातियों के दिखाने के दांत कुछ और, और खाने के कुछ और होते है, फिर भी आपका प्रयास काफी सार्थक ही कहा जायेगा.......
    बधाई इस पोल - पट्टी खोलते अनूठे व्यंग के लिए.
    चन्द्र मोहन गुप्त
    जयपुर
    www.cmgupta.blogspot.com

    ReplyDelete
  10. भई नेताओं की आत्मा तो होती ही नहीं । चलिये आपको दिख तो गई ।

    ReplyDelete
  11. बहुत बढ़िया लिखा है आपने! आपकी हर एक रचनाएँ मुझे बेहद पसंद है! इस बेहतरीन रचना के लिए बधाई!

    ReplyDelete
  12. शानदार रचना।सिर्फ़ भावना ही नही बल्कि हक़ीक़त भी।वाह क्या बात है,छा गये आप्।

    ReplyDelete
  13. बहुत सुन्दर रचना....बहुत बहुत बधाई

    ReplyDelete
  14. अरे इन नेताओ के पास आत्मा नाम की चीज होती ही नही, अगर होती होगी तो शायद भाग गई होगी, सोचति होगी जो अपने बाप का नही मेरा केसे होगा..
    आप ने कविता बहुत सुदर लिखी.
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  15. मज़ा आ गया भाई विनोद इसे पढ़के.. सही में ये रचना आज के नेताओं के रंग ढंग पर व्यंग्य भी करती है और पाठकों को गुदगुदाती भी है।
    हाँ एक पंक्ति मे लेकिन चोट मिली इतनी की.. कर लो..

    ReplyDelete
  16. बेहतरीन,
    भावभरी कविता के लिए,
    बधाई!

    ReplyDelete
  17. बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति, आभार

    ReplyDelete