Monday, December 28, 2009

अपने ही समाज के बीच से निकलती हुई दो-दो लाइनों की कुछ फुलझड़ियाँ-2

उल्टा-पुल्टा दौर है,उल्टा बहे समीर|

रांझा आवारा फिरे,हुई बेवफा हीर||


रक्षक ही भक्षक बनें,किसे सुनाएँ पीर|

कुछ घर में भूखे मरे,गटक रहे कुछ खीर||


खा लो जितना भी मिलें,राखो मन में धीर|

उतना ही मिलता यहाँ,जितनी है तकदीर||


मँहगी रोटी,मँहगी कोठी,मँहगा तन पे चीर|

की जैसे संसद बना,अब्बा की जागीर||


वायु का कण-कण दूषित है,हुई विषैली नीर|

कैंसर,टी. वी.,अस्थमा,ढूढ़त फिरे शरीर||


धरम-करम नाटक देखो,गंगा जी के तीर|

लूट रहे जनता को सब,पंडा और फकीर||


गुरु-गोविंद दोउ बिसराए,आज कलयुगी वीर|

फीकी पड़ी गुरु की महिमा,झूठे पड़े कबीर||

30 comments:

  1. आज का यथार्थ दर्शाती रचना..खूब कहा!!







    यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।

    हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.

    मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.

    निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।

    एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।

    आपका साधुवाद!!

    शुभकामनाएँ!

    समीर लाल
    उड़न तश्तरी

    ReplyDelete
  2. वाह! बहुत खूब.... सच का आइना दिखाती बेहतरीन रचना.......

    ReplyDelete
  3. आ....हा ....विनोद जी आपने तो मुझे बेवफा बना दिया .....??

    पर सही कहा आपने आजकल की हीरें तो बेवफा ही हैं .....!!

    ReplyDelete
  4. Harek panktee se sahmat hun, waise to! Waah!

    ReplyDelete
  5. ... प्रसंशनीय अभिव्यक्ति !!!

    ReplyDelete
  6. बहुत सुंदर और सामयिक रचनाएँ हैं।

    मँहगी रोटी,मँहगी कोठी,मँहगा तन पे चीर|
    की जैसे संसद बना, अब्बा की जागीर||

    यह तो बहुत ही सुंदर बन पड़ा है।

    ReplyDelete
  7. तुमने निदा फाजली की याद दिला दी।

    ReplyDelete
  8. फुलझड़ियों की रौशनी में सारा सच दिख गया...बेहतरीन तरीके से कटाक्ष किया है,आज की हालात पे..

    ReplyDelete
  9. ऐसे कवियों को ढूंढती है माँ (बोली), मैं सदके जावां वड्डे वीर दे।

    शौचालय से सोचालय तक

    ReplyDelete
  10. क्या बात है विनोद भाई , जादू है आपके लेखन में , हर एक शब्द जैसे बरस पड़े , बहुत खूब ।

    ReplyDelete
  11. सादर वन्दे
    समाज की सही तस्वीर के साथ साथ आपने कबीर को भी आत्मसात कर लिया है इस रचना के साथ
    रत्नेश त्रिपाठी

    ReplyDelete
  12. pehli baar apke blog per aayi apke rev.k thru.bahut bahut shukriya.

    aapki rachna bahut acchhi hai jo samaj par sateek kataksh kar rahi hai.
    badhayi.

    ReplyDelete
  13. गुरु-गोविंद दोउ बिसराए,आज कलयुगी वीर|

    फीकी पड़ी गुरु की महिमा,झूठे पड़े कबीर||

    बहुत ही सटीक लगी आप की यह रचना, बहुत सुंदर
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  14. पाण्डेय जी !
    आप अलग - किस्म का लिखते हैं .. अच्छा
    लगता है .
    '' हुई बिषैली नीर '' में ''बिषैला'' होता तो
    और अच्छा होता क्योंकि नीर अपनी
    शाब्दिक प्रकृति में पुल्लिंग है ..

    ReplyDelete
  15. दोहा छन्द मे बनी कविता का तो मजा ही अलग है।
    आपको इसके लिए बधाई!

    ReplyDelete
  16. उतना ही मिलता यहाँ जितनी है तकदीर
    बहुत सुन्दर, विनोद जी !

    ReplyDelete
  17. सच्‍चाई का दामन थामे एक बेहतरीन अभिव्‍यक्ति, आभार ।

    ReplyDelete
  18. मँहगी रोटी,मँहगी कोठी,मँहगा तन पे चीर
    की जैसे संसद बना,अब्बा की जागीर .....

    विनोद जी आपके व्यंग की धार बहुत तीखी है .... काश ऐसे लोगों की चमड़ी में घाव कर सकती ..... बहुत ही अच्छे दोहे हैं ... सटीक, सामयिक और सार्थक .......... नव वर्ष की आपको बहुत बहुत शुभकामनाएँ ...........

    ReplyDelete
  19. सही निशाना मारा आपने लगा निशाने पर तीर...
    बहुत ही सही बात कही है आपने....

    ReplyDelete
  20. कबीर की बानगी के लिये धन्यवाद.

    ReplyDelete
  21. वाह वाह विनोद भाई, दुईये लाईन में सबको चित कर दिये आप..एक दम धांस के मारे हैं ..कमाल है

    ReplyDelete
  22. धरम-करम नाटक देखो,गंगा जी के तीर|
    लूट रहे जनता को सब,पंडा और फकीर||

    एक दम सच का आइना दिखाती रचना।
    नव वर्ष की अग्रिम शुभकामनायें।

    ReplyDelete
  23. बहुत अच्छी कविता।
    आने वाला साल मंगलमय हो।

    ReplyDelete
  24. vविनोद जी सच मे एक बहुत बडी भूल हो गयी मुझ से आपका स्नेह मुझे बहुत मिलता रहा मगर मैं नालायक आपका नाम उस पोस्ट मे लेना भूल गयी । क्षमा चाहती हूँ। कुछ दिन से व्यस्त हूँ पोस्ट भी बहुत जल्दी जल्दी मे लिखी है। आप्की ये रचना तो कमाल की है।अप समाज का आईना बहुत गहरे मे उतर कर दिखाते हैं बधाई नये साल की शुभकामनायें

    ReplyDelete
  25. बहुत वक़्त के बाद कुछ अलग तरह की कविता पढ़ी। अच्छा लगा।

    कम से कम प्यार और अत्याचार से अलग तो है।
    लिखते रहिये विनोद जी।

    ReplyDelete
  26. ये दोहे तो बहुत कुछ कह रहे हैं भईया !
    चित्र ही हैं बहुत से बिखरे हुए । आभार रचना के लिये ।

    ReplyDelete
  27. कैंसर .टी ० बी० अस्थमा .........
    क्या खूब कहा ....
    मैंने एक लेख दिया है ब्लॉग पर ,कृपया उसे पढ़ कर सीरियसली सोचे और उत्तर दें
    २०१० मुबारक

    ReplyDelete
  28. दोहों में सशक्त वर्णन किया है.

    ReplyDelete