Thursday, March 11, 2010

अपने ही समाज के बीच से निकलती हुई दो-दो लाइनों की कुछ फुलझड़ियाँ-4(विनोद कुमार पांडेय)

वृक्षों के मन-भाव को,कौन करे महसूस,
नेता,पुलिस,बिचौलिए,बाँट रहें सब घूस.

सबसे रो कर कह रहें,पीपल,बरगद,नीम,
सिर्फ़ प्रदर्शन ही बना,हरियाली का थीम.

वृक्ष लगाओ,धरा पर,गावत फिरे समाज,
पर करनी ना कछु दिखे,कहत न आवे लाज.

हरियाली हरि सी भई,दुर्लभ तरु की छाँव,,
पत्ते-पत्ते चीखते,शहर से लेकर गाँव.

पुष्प की सतरंगी लड़ी,गुलशन में गायब,
तुलसी बेबस हैं पड़ीं,मगर मौन है सब.

अब कागज के फूल से, सज़ा रहे घर-बार,
गेंदा और गुलाब की,चर्चा है बेकार.

24 comments:

  1. बहुत सार्थक बातें कही है आपने ।
    वर्तमान परिवेश में यही सब कुछ हो रहा है।

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  2. विनोद भाई,
    बहुत बढिया दोहे वर्तमान परिवेश पर।
    आभार

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  3. पांडेजी बढ़िया रचना . आनंद आ गया ...

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  4. यह तो वास्‍तव में पर्यावरण हित में है और हकीकत से रूबरू कराती चलती चंद लाईनें चांदमारी करने में सर्वथा समर्थ हैं।

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  5. फूलों की सतरंगी लड़िया,गुलशन में गुल सी,
    आँगन का अस्तित्व मिटा,कहाँ रहें तुलसी.
    बहुत सुन्दर और जमीनी सच्चाई
    त्रासद भी

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  6. आजकल के परिवेश को दर्शाते दोहे सटीक हैं!

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  7. इन फुलझडियों के माध्यम से आपने बहुत गहरी बात कही है .....सार्थक फुलझडियां

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  8. Chaliye...ham khudhi apne,apne starpe koshish kar len!

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  9. विनोद भाई आपने अपनी रचना के माध्यम से बहुत ही सार्थक बात कही है , हमेशा की तरह ये रचना भी लाजवाब रही ।

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  10. aaj kal vastava me ye hi sab ho raha hai .aapaki baat ekdam sahi hai vo kahaten hai na ki, kathani aur karani me bahut antar hai.
    poonam

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  11. एक से एक सटीक दोहे....बहुत खूब!

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  12. विनोद जी, इनमें से कुछ दोहे अशुद्ध हैं, उन्‍हें ठीक कर लें। आपका भाव श्रेष्‍ठ है इसलिए ही मैंने लिखा। क्‍योंकि इतनी अच्‍छी बात तकनीकि खराबी के कारण बेकार सिद्ध हो जाए तो अच्‍छा नहीं रहेगा। बुरा नहीं माने। दोहे के अन्‍त में गुरु लघु आता है। जेसे घूस, थीम आदि। लेकिन बेबस, तुलसी का प्रयोग ठीक नहीं है।

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  13. अब कागज के फूल से,
    सज़ा रहे घर-बार,गेंदा और गुलाब की,
    चर्चा है बेकार.
    बहुत सुंदर शव्दो से आप ने वर्तमान परिवेश को अपनी कवितामै दर्शाया है

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  14. दो पंक्तियों में बहुत ही गहरी बात.....सच असली फूलों की चर्चा तो बस किताबों में ही रह गयी है....

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  15. "अब कागज के फूल से, सजा रहे घर बार।
    गेंदा और गुलाब की, चर्चा है बेकार॥"


    बहुत सुन्दर!

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  16. बहुत ही सुन्दरता से आपने आज के परिवेश की सच्चाई को बखूबी शब्दों में पिरोया है! इस लाजवाब और उम्दा रचना के लिए बधाई!

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  17. अरे वाह , लगभग अछूता विषय और बहुत बढ़िया रचना कुछ अलग सी !
    शुभकामनाएं !!

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  18. विनोद जी हमेशा की तरह समाज की सही तस्वीर दिखाई है हर एक पँक्ति कोट करने वाली है। हर एक दोहा आज का सच ब्याँ कर रहा है। धन्यवाद और आशीर्वाद।

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  19. भई यह तो दोहों के फॉर्म मे दिखाई दे रहे हैं कुछ मात्रा-वात्रा गिन लीजिये बाकी तो चकचक है ।

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  20. मै हमेशा से ही आप के लेखन की इस विधा से से बहुत अभिभूत हूँ की आप यथार्त विषयों को उठाते है और लोगो का ध्यान उस ओर आकर्षित करते है
    सादर ३
    प्रवीण पथिक
    9971969084

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  21. बाहर होने की वजह से ब्लॉग जगत से जुड़ नही पाया .. आज आपके ब्लॉग पर आना हुवा है ...
    बहुत ही लाजवाब दोहे कहे हैं आपने विनोद जी ... कड़ुवे सच को बयान करते हैं ..

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