वृक्षों के मन-भाव को,कौन करे महसूस,
नेता,पुलिस,बिचौलिए,बाँट रहें सब घूस.
सबसे रो कर कह रहें,पीपल,बरगद,नीम,
सिर्फ़ प्रदर्शन ही बना,हरियाली का थीम.
वृक्ष लगाओ,धरा पर,गावत फिरे समाज,
पर करनी ना कछु दिखे,कहत न आवे लाज.
हरियाली हरि सी भई,दुर्लभ तरु की छाँव,,
पत्ते-पत्ते चीखते,शहर से लेकर गाँव.
पुष्प की सतरंगी लड़ी,गुलशन में गायब,
तुलसी बेबस हैं पड़ीं,मगर मौन है सब.
अब कागज के फूल से, सज़ा रहे घर-बार,
गेंदा और गुलाब की,चर्चा है बेकार.
बहुत सार्थक बातें कही है आपने ।
ReplyDeleteवर्तमान परिवेश में यही सब कुछ हो रहा है।
विनोद भाई,
ReplyDeleteबहुत बढिया दोहे वर्तमान परिवेश पर।
आभार
पांडेजी बढ़िया रचना . आनंद आ गया ...
ReplyDeleteयह तो वास्तव में पर्यावरण हित में है और हकीकत से रूबरू कराती चलती चंद लाईनें चांदमारी करने में सर्वथा समर्थ हैं।
ReplyDeleteफूलों की सतरंगी लड़िया,गुलशन में गुल सी,
ReplyDeleteआँगन का अस्तित्व मिटा,कहाँ रहें तुलसी.
बहुत सुन्दर और जमीनी सच्चाई
त्रासद भी
आजकल के परिवेश को दर्शाते दोहे सटीक हैं!
ReplyDeleteइन फुलझडियों के माध्यम से आपने बहुत गहरी बात कही है .....सार्थक फुलझडियां
ReplyDeleteChaliye...ham khudhi apne,apne starpe koshish kar len!
ReplyDeleteविनोद भाई आपने अपनी रचना के माध्यम से बहुत ही सार्थक बात कही है , हमेशा की तरह ये रचना भी लाजवाब रही ।
ReplyDeleteaaj kal vastava me ye hi sab ho raha hai .aapaki baat ekdam sahi hai vo kahaten hai na ki, kathani aur karani me bahut antar hai.
ReplyDeletepoonam
एक से एक सटीक दोहे....बहुत खूब!
ReplyDeleteविनोद जी, इनमें से कुछ दोहे अशुद्ध हैं, उन्हें ठीक कर लें। आपका भाव श्रेष्ठ है इसलिए ही मैंने लिखा। क्योंकि इतनी अच्छी बात तकनीकि खराबी के कारण बेकार सिद्ध हो जाए तो अच्छा नहीं रहेगा। बुरा नहीं माने। दोहे के अन्त में गुरु लघु आता है। जेसे घूस, थीम आदि। लेकिन बेबस, तुलसी का प्रयोग ठीक नहीं है।
ReplyDeletebehatareen panktian. badhaai.
ReplyDeleteअब कागज के फूल से,
ReplyDeleteसज़ा रहे घर-बार,गेंदा और गुलाब की,
चर्चा है बेकार.
बहुत सुंदर शव्दो से आप ने वर्तमान परिवेश को अपनी कवितामै दर्शाया है
दो पंक्तियों में बहुत ही गहरी बात.....सच असली फूलों की चर्चा तो बस किताबों में ही रह गयी है....
ReplyDeletesabhee ke sabhee damdar,jandar,shandar.narayan narayan
ReplyDelete"अब कागज के फूल से, सजा रहे घर बार।
ReplyDeleteगेंदा और गुलाब की, चर्चा है बेकार॥"
बहुत सुन्दर!
बहुत सुन्दर विनोद जी !
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दरता से आपने आज के परिवेश की सच्चाई को बखूबी शब्दों में पिरोया है! इस लाजवाब और उम्दा रचना के लिए बधाई!
ReplyDeleteअरे वाह , लगभग अछूता विषय और बहुत बढ़िया रचना कुछ अलग सी !
ReplyDeleteशुभकामनाएं !!
विनोद जी हमेशा की तरह समाज की सही तस्वीर दिखाई है हर एक पँक्ति कोट करने वाली है। हर एक दोहा आज का सच ब्याँ कर रहा है। धन्यवाद और आशीर्वाद।
ReplyDeleteभई यह तो दोहों के फॉर्म मे दिखाई दे रहे हैं कुछ मात्रा-वात्रा गिन लीजिये बाकी तो चकचक है ।
ReplyDeleteमै हमेशा से ही आप के लेखन की इस विधा से से बहुत अभिभूत हूँ की आप यथार्त विषयों को उठाते है और लोगो का ध्यान उस ओर आकर्षित करते है
ReplyDeleteसादर ३
प्रवीण पथिक
9971969084
बाहर होने की वजह से ब्लॉग जगत से जुड़ नही पाया .. आज आपके ब्लॉग पर आना हुवा है ...
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब दोहे कहे हैं आपने विनोद जी ... कड़ुवे सच को बयान करते हैं ..