Thursday, September 2, 2010

चार दिन की जिंदगी है-----एक हास्य-व्यंग रचना---(विनोद कुमार पांडेय)

इस महीने पूरा प्रयास रहेगा आप लोगों को हँसाने का, उसी सिरीज़ में आज प्रस्तुत है एक हास्य-व्यंग की ग़ज़ल जो शायद युवा लोग को कुछ ज़्यादा ही पसंद आएगी...व्यंग की दृष्टि से पढ़े और आनंद लें....धन्यवाद

चार दिन की जिंदगी है, जिये जा
मौज सारे जिंदगी के, लिये जा

सभ्यता के नाम पर मॉडर्न हो
छोड़ कर ठर्रा विदेशी पिये जा

क्या पता कल हो न हो,ये सोचकर
सब्र को हर रोज फाँसी, दिये जा

बाप ने जितना बचा कर है रखा
छान-घोंट सब बराबर किये जा

हादसों का है शहर तुम क्या करोगे
देख कर बस होंठ अपने सिये जा

12 comments:

  1. वाह विनोद, मज़ा आ गया!

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  2. बहुत अच्छा लिख रहे हो भैया ...बढ़िया व्यंग्य ! शुभकामनाएं

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  3. हास्य में भी व्यंग है ..बढ़िया प्रस्तुति

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  4. अति सुन्दर प्रस्तुति के लिये, आप का धन्यवाद!!

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  5. सही व्यंगात्मक हास्य ।

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  6. shaabaash.mazaa aa gayaa. haasya bhi hai aur vyangya bhi aisa kam hota hai ki dono kasantulan banaarahe. sundar kavita ke liye badhaai.

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  7. पढ़ कर अच्छा लगा . एक सीधी सादी नाक की सीध में चलती रचना.

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  8. बाप ने जितना बचा कर है रखा
    छान-घोंट सब बराबर किये जा ..

    बहुत खूब ... ग़ज़ब के हास्य और व्यंग का मिश्रण है विनोद जी .....

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