Saturday, November 6, 2010

जो अंधों में काने निकले,वो ही राह दिखाने निकले---(विनोद कुमार पांडेय)

जो अंधों में काने निकले
वो ही राह दिखाने निकले

उजली टोपी सर पर रख के,
सच का गला दबाने निकले

चेहरे रोज बदलने वाले
दर्पण को झुठलाने निकले

बातें,सत्य अहिंसा की है,
पर,चाकू सिरहाने निकले

जिन्हे भरा हम समझ रहे थे
वो खाली पैमाने निकले

मुश्किल में जो उन्हें पुकारा
उनके बीस बहाने निकले

कल्चर को सुलझाने वाले
रिश्तों को उलझाने निकले,

नाले-पतनाले बारिश में,
दरिया को धमकाने निकले,

माँ की बूढ़ी आँखे बोली,
आंसू भी बेगाने निकले

पी. एच. डी. कर के भी देखो
बच्चे गधे उड़ाने निकले

25 comments:

  1. नाम बड़े और दर्शन थोड़े वाली बात कह दी है ..अच्छी प्रस्तुति

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  2. चेहरे रोज बदलने वाले
    दर्पण को झुठलाने निकले

    बहुत खूब .. सुन्दर रचना .. यथार्थ दर्शाती

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  3. माँ की बूढ़ी आँखे बोली,
    आंसू भी बेगाने निकले
    बहुत भाव पुर्ण कविता धन्यवाद

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  4. 'असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय ' यानी कि असत्य की ओर नहीं सत्‍य की ओर, अंधकार नहीं प्रकाश की ओर, मृत्यु नहीं अमृतत्व की ओर बढ़ो ।

    दीप-पर्व की आपको ढेर सारी बधाइयाँ एवं शुभकामनाएं ! आपका - अशोक बजाज रायपुर

    ग्राम-चौपाल में आपका स्वागत है
    http://www.ashokbajaj.com/2010/11/blog-post_06.html

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  5. जो अंधों में काने निकले
    वो ही राह दिखाने निकले
    वाह-वाह क्या बात कही है आपने , सुंदर और सम्यक विचारों से ओतप्रोत रचना ...शुक्रिया

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  6. .

    जिन्हे भरा हम समझ रहे थे
    वो खाली पैमाने निकले...

    सटीक व्यंग।

    .

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  7. माँ की बूढ़ी आँखे बोली,
    आंसू भी बेगाने निकले

    सुन्दर रचना...अच्छी प्रस्तुति...

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  8. बहुत अच्छी रचना लिखी है पांडे जी । रचना में शुद्धता है और यथार्थ भी ।
    दीवाली की शुभकामनायें ।

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  9. चेहरे रोज बदलने वाले
    दर्पण को झुठलाने निकले...

    यही तो बात है. सटीक सुंदर रचना.

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  10. 4. असमर्थता मुसीबत है और सब्र व संतोष वीरता है, दुनिया को न चाहना दौलत व पारसाई ढाल है और रिज़ा अच्छे सभासद है। 5. इल्म, सबसे अच्छी मीरास और सदाचार नवीन आभूषण हैं, और विचार साफ़ आईना (दर्पण) है।

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  11. आपको और आपके परिवार को दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें !

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  12. बहुत सुंदर व्यंग्य है।

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  13. विनोद जी ...आपकी ये रचना मुझे तो बहुत पसंद आई.

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  14. विनोद ,
    रचना पढ़कर दिल से आशीर्वाद निकला है तुम्हारे लिए ! ऐसे रचना सिर्फ वही लिख पाता है जो दिल से स्वच्छ और संवेदनशील हो .... बड़ी धार है इस रचना में ! समाज की बुराइयों को उजागर करती, ऐसी रचनाये कालजयी होती हैं ! मेरा विश्वास है कि शीघ्र ही तुम देश के अच्छे कवियों में गिने जाओगे !
    सस्नेह !

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  15. माँ की बूढ़ी आँखे बोली,
    आंसू भी बेगाने निकले
    कमाल है विनोद जी लाजवाब कितना सच......

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  16. सफेदपोशों के चेहरे से नकाब को हटाती बहुत ही आला दर्जे की रचना ...

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  17. ीतनी सुन्दर गज़ल मुझ से पडःाने से कैसे रह गयी? विनोद आप कमाल करने लगे हैं गज़ल मे। हर एक शेर गज़ब है। बधाई।

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  18. हा..हा..हा..बहुत अच्छी बात कही आपने.

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  19. चेहरे रोज बदलने वाले
    दर्पण को झुठलाने निकले..

    वाह वाह विनोद जी ... छूटने लगी थी ये ग़ज़ल ... पर पकड़ ही ली ... बहुत ही लाजवाब ... अपने व्यंगात्मक अंदाज में चाते जा रहे हैं आप .... छोटी बहर भी कमाल कि निभाई है ....

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  20. बेहतरीन रचना ... एक एक शेर लाजवाब हैं ... बहुत दिनों बाद इतनी अच्छी रचना पढ़ने को मिली

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  21. der se aa raha hoo. tum to dino din nikharate ja rahe ho...sundar sher. har kon se.badhai....

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  22. बहुत पते की बात कही है - यही है ज़िन्दगी।

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  23. बातें,सत्य अहिंसा की है,
    पर,चाकू सिरहाने निकले

    बहुत खूब ....!!

    मुश्किल में जो उन्हें पुकारा
    उनके बीस बहाने निकले

    बिलकुल सच्चाई पेश करता शे'र .....!!

    नाले-पतनाले बारिश में,
    दरिया को धमकाने निकले,

    वाह .....!!
    बिलकुल नई सोच के साथ ....
    अद्भुत और लाजवाब .....!!

    विनोद जी आज तो बस कमाल ही है ....!!

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  24. उजली टोपी सर पर रख के,
    सच का गला दबाने निकले
    ==================
    मुश्किल में जो उन्हें पुकारा
    उनके बीस बहाने निकले
    ==================
    रचना पढ़ कर सुखद अनुभूति हुई। बधाई।
    सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
    ===================
    नए दौर में ये इजाफ़ा हुआ है।
    जो बोरा कभी था लिफ़ाफ़ा हुआ है॥
    जिन्हें लत पड़ी थूक कर चाटने की-
    वो कहते हैं इससे मुनाफ़ा हुआ है॥
    सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी

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  25. विनोद जी
    अभी कई कारणों से अनियमित हूं नेट पर …
    विलंब से पढ़ रहा हूं , लेकिन पढ़ते ही तुरंत कह उठा हूं
    वाह ! वाऽऽह ! वाऽऽऽह !
    अच्छे अश्'आर हैं कुछ , और कुछ बहुत अच्छे ,
    मतला शानदार
    जो अंधों में काने निकले
    वो ही राह दिखाने निकले


    अभी कम लिखे को ज़्यादा मानें

    शुभकामनाओं सहित
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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