Friday, August 19, 2011

४ मुक्तक----(विनोद कुमार पांडेय)

एक लंबे अंतराल के बाद 4 मुक्तक से अगली पारी का आगाज़ कर रहा हूँ देखिएगा...

दोष अपना दूसरों पर मढ़ने की कला
बन चुकी है आज आगे बढ़ने की कला,
बन नही पाओगे उल्लू,तुम कभी
है पता गर आदमी को, गढ़ने की कला

जमाने के ढंग को समझने लगे हम
दिखावा है ज़्यादा,हक़ीकत बहुत कम,
और अपनों को चूना लगाने में भी अब
नही आती है आदमी को शरम

मानता हूँ बड़े आदमी हो गये,झोपड़ी थी कभी,जो महल हो गई
बीज बंजर पे बोया था जो आपने,उस जगह पे भी अच्छी फसल हो गई
पर न इतराना इस पर कभी दोस्त तुम,काम इससे बड़ा भी है संसार में
बन सको मुस्कुराहट अगर तुम किसी का,तब समझना की जीवन सफल हो गई

इस कदर हालात से मजबूर हो गये
नज़दीकियाँ कायम रही पर दूर हो गये
इंसानियत की बातें जिस दिन से बंद की
उस दिन से वो जहाँ में मशहूर हो गये

9 comments:

  1. इस कदर हालात से मजबूर हो गये
    नज़दीकियाँ कायम रही पर दूर हो गये
    इंसानियत की बातें जिस दिन से बंद की
    उस दिन से वो जहाँ में मशहूर हो गये

    क्या बात कही है आपने .....यह भी एक नायाब तरीका है मशहूर होने का ....बहुत दिनों बाद आपको पढना अच्छा लगा ...आपका आभार

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  2. चारो मुक्तक लाजवाब हैं...

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  3. वाह ...बहुत खूब ।

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  4. इस कदर हालात से मजबूर हो गये
    नज़दीकियाँ कायम रही पर दूर हो गये
    इंसानियत की बातें जिस दिन से बंद की
    उस दिन से वो जहाँ में मशहूर हो गये ...

    बहुत खूब !

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  5. दोष अपना दूसरों पर मढ़ने की कला
    बन चुकी है आज आगे बढ़ने की कला,
    बन नही पाओगे उल्लू,तुम कभी
    है पता गर आदमी को, गढ़ने की कला

    बहुत सुन्दर मुक्तक दोस्त जी :)

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  6. तारीफ तो मुझे भी करनी पड़ेगी

    पर विचारों की ही अभी तोकरूंगा

    थोड़ा इन्‍हें सांचों के खांचे में फिट

    करना सीख लो इसे पढ़ लो जरूर


    ज्ञान मुझे इस कला नहीं है, पर तुम जरूर जान लो, इंटरनेट में मार लो सर्च, नहीं तो गुरू इसके लिए किसी को धार लो। आशीर्वाद

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  7. @@जमाने के ढंग को समझने लगे हम
    दिखावा है ज़्यादा,हक़ीकत बहुत कम,
    और अपनों को चूना लगाने में भी अब
    नही आती है आदमी को शरम..

    बहुत ही सामयिक , सटीक और उम्दा.

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  8. विनोद जी इतने दिनों बाद ... पर वही तेवर देख कर अच्छा लगा ... चारों लाजवाब हैं ..

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