मुक्तक - 5
एक पुराना सपना फिर आँखों में आया था
तभी हवा ने रुख़ बदला वो सपना टूट गया
ट्रेन बनारस से दिल्ली को जैसे ही छूटी
लगा दोबारा मिलकर जैसे बचपन छूट गया
~विनोद पाण्डेय
चंद लम्हें थे मिले,भींगी सुनहरी धूप में, हमने सोचा हँस के जी लें,जिन्दगानी फिर कहाँ
मुक्तक - 4
हालात बड़े ही बुरे दिखने लगे हैं अब
जनता गुहार कर रही,सरकार संभाले
सरकार इसी कश्मकश में जूझ रही है
बीमार संभालें या बाजार संभालें
---विनोद पाण्डेय
मुक्तक -2
भारी है बीमारी न कोई दिख रहा इलाज
संवेदनाएँ मर रहीं ग़ायब है शर्म-लाज
हम गिन रहे हैं सिर्फ़ सियासत में कमी पर
पूरे समाज का ही पतन हो रहा है आज
~ विनोद पाण्डेय
मम्मी वो जूता दिलवा दो