चंद लम्हें थे मिले,भींगी सुनहरी धूप में, हमने सोचा हँस के जी लें,जिन्दगानी फिर कहाँ
Saturday, April 24, 2010
सरकारी सारे प्रयास कितने सक्षम है,क्या बोलूँ,उन्नतशील हो रहा भारत,मगर उन्नति जै श्री राम----(विनोद कुमार पांडेय)
Monday, April 19, 2010
टीका,चंदन,माला,दाढ़ी,साधु बाबा बड़े खिलाड़ी----------(विनोद कुमार पांडेय)
Thursday, April 15, 2010
जंगल के राजाओं की एक गुहार- एक व्यंग रचना(विनोद कुमार पांडेय)

कल हरिभूमि में प्रकाशित में प्रकाशित मेरी एक व्यंग रचना...
ये तो रही एक बात पर मेरी समझ में ये नही आता की आख़िर बाघों की संख्या इतनी तेज़ी से घट क्यों रही है, कौन से बाहरी घुसपैठियें है जो इनकी राजधानी में दखल कर के इन्हे ही वहाँ से टरकाने के मूड में आ गये है, काफ़ी कुछ सोचने के उपरांत इतना तो लगता ही है कि किसी और जंगली जानवरों में तो ऐसा दम नही जो अपने ही राजा के खिलाफ कोई मुहिम छेड़ सके. इसके अतिरिक्त अगर कोई और बचता है तो वह है आदमी वैसे भी बड़े बूढ़े कहते है भैया आदमी जो है वो जानवर से भी ज़्यादा शक्तिशाली और ख़तरनाक होता है क्योंकि उसके पास एक दिमाग़ होता है और वो उसे शातिर भी बना सकता है,वैसे भी कुछ उदाहरणों को देखते हुए कहा जा सकता है की आदमी में कुछ अलग ही बात है.तो फिर बात घूम फिर कर वही आ जाती है कि अब आदमी से जंगल के राजा को कैसे बचाया जाय,उनके खेमे में भी इस बात को लेकर खामोशी छाई रहती है तभी तो आज कल बेचारे चिड़ियाघर में भी मुरझाए से रहते है, और आदमी के सामने आने से बचते रहते है.