Saturday, August 19, 2017

बरेली की बर्फी



फिल्मों की दुनिया में कम पैसा खर्च कर के अधिक मुनाफा कमाना एक कलाकारी है और इस कलाकारी में डायरेक्टर अश्विनी अय्यर तिवारी का हाथ एकदम साफ़ मालूम पड़ता है |निल बटे सन्नाटा के बाद उन्होंने बरेली की बर्फी दिखा कर सिनेमा पसंद लोगों की जीभ को लपलपाने का मौका दिया है,कम ही लोग होंगे जो इसे खाने से परहेज करेंगे | सुपरहिट मूवी दंगल के डायरेक्टर नीतेश तिवारी ने बरेली की बर्फी की कहानी में मीठे के साथ-साथ नमक-मिर्च भी भरपूर मात्रा में ठूसा है | फिल्म असफल प्रेमियों को जीवन के प्रति आशावान बनाती है ,उन्हें किताब लिखने की प्रेरणा देती है ताकि शायद इस डिजिटल युग में कोई भूले भटके से उनकी किताब पढ़ ले और कोई बरेली की बर्फी उनकी जिंदगी में भी मिठास घोल दे | फिल्म हँसाती भी है ,रुलाती भी है ,डगमगाती भी है और भरमाती भी है | महानगरों की चकाचौंध से दूर फिल्म की पृष्ठभूमि आपको अपने पास-पड़ोस की याद दिलाएगी | हालाँकि फिल्म में बरेली का कोई विशेष योगदान नहीं है फिर भी कहीं-कहीं क्षेत्रीय बोलियों का अद्भुत प्रयोग डायलॉग डिलीवरी को आकर्षक बना रहा है | हाँ एक खास बात यह है कि बरेली की बर्फी टाईटल में साहित्यिक टाईप के लोगों को अनुप्रास अलंकार दिखाई पड़ता है परन्तु यह अलंकार तब भी झलकता अगर इस फिल्म का नाम बलिया की बर्फी ,बनारस की बर्फी ,बाराबंकी की बर्फी या बहलोलपुर की बर्फी होता |
फिल्म की कहानी बरेली के स्थानीय हलवाई (पंकज त्रिपाठी ) एवं प्राइमरी स्कूल शिक्षिका (सीमा पाहवा ) की इकलौती बिंदास लड़की बिट्टी मिश्रा (कृति सेनन ) के कारनामें से शुरू होती है | सिगरेट और इंग्लिश फिल्मों की दीवानी बिट्टी का शहर में कोई दीवाना नहीं है ,घर वाले शादी के लिए लड़के तो खूब ढूढ़ रहे हैं लेकिन बिट्टी की आदतों और हाजिरजवाबी का मुकाबला करना किसी लड़के के वश में नहीं होता अतः रिश्ता बनने से पहले ही टूट जाता | घर से भागने के चक्कर में बिट्टी को स्टेशन पर बरेली की बर्फी नामक एक घटिया किताब हाथ लगती है जिसे चिराग दूबे (आयुष्मान खुराना ) ने लिखा किन्तु किताब की घटियागिरि एवं मिलने वाली प्रतिक्रिया को सोचकर अपने लल्लू टाइप दोस्त प्रीतम विद्रोही (राजकुमार राव ) के नाम से छपवाया | बिट्टी को किताब के नकली लेखक प्रीतम विद्रोही से इसलिए प्यार जैसा कुछ हो जाता है क्योंकि बिट्टी को गलतफहमी हो जाती है कि प्रीतम विद्रोही ने किताब में जिस लड़की के बारे में लिखा है वो बिट्टी ही है जबकि चिराग ने उस किताब में अपनी भूतपूर्व प्रेमिका के मानसिक एवं चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख किया है | इधर बिट्टी के दिल की बात जब चिराग को पता चलती है तो स्वयं लेखक न स्वीकार करके प्रीतम विद्रोही से मिलवाने की बात करता है ,प्रीतम को केंद्र में रखकर दोनों में मिलना जुलना बढ़ता है और इस घटना में चिराग को बिट्टी से एकतरफा प्यार हो जाता है ,कहानी मुड़ती है प्रीतम विद्रोही चिराग द्वारा बिट्टी के जिंदगी में नाटकीय ढंग से लाया जाता है और फिर लवस्टोरी में चिराग बैकफुट पर आ जाता है | अंत तक जाते जाते फिल्म में बहुत कुछ वैसे ही होता है जैसा बहुत से रोमांटिक फिल्मों में हो चुका है अतः ज्यादा फिल्म देखने वाले आसानी से भाँप लेते हैं कि क्लीमेक्स में हीरोइन का दूल्हा कौन बनेगा |
पंकज त्रिपाठी जब जब स्क्रीन पर आते , सहज गुदगुदाते हैं | जोरदार एक्टिंग की है उन्होंने | राजकुमार राव ने दो तरह के किरदार निभाए हैं | लल्लू टाइप के किरदार में बेहतरीन एक्टिंग दिखा पर दबंग के रोल में उनका मेहनत ज्यादा रंग नहीं ला सका |आयुष्मान बेहतरीन एक्टर हैं ,फुटेज भी खूब मिला है ,काम भी बढ़िया रहा | अपने दोस्त के साथ बातचीत में उन्होंने भाषाई कलाकारी दिखाई है जो प्रभावित करता है | आयुष्मान के दोस्त,बिट्टी की सहेली रमा और बिट्टी के मम्मी के रोल में सीमा पाहवा ने भी छाप छोड़ी है | कृति सेनन ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर बताया कि अभी उन पर विश्वास किया जा सकता है |
फिल्म की कहानी में कुछ भटकाव भी है ,नाटकीयता अधिक है जो शायद नए मजनुओं को प्रभावित कर सकती है | कमजोरी की बात करें तो फिल्म में ऐसा कोई गाना नहीं है जिसे सुनने का मन करे ,कोई ऐसा लोकेशन नहीं है जो आपको लुभा सके,कलाकारों की साज सज्जा आधुनिक लडके लड़कियों को बड़े साधारण लगेंगे | सब कुछ साधारण लगभग ही है जो बहुत अच्छा है वो है कलाकरों की एक्टिंग और फिल्म की कहानी है | इसलिए आप इस पैसा वसूल फिल्म को एक बार देख कर अच्छा महसूस कर सकते हैं |
--विनोद पांडेय

Tuesday, August 15, 2017

टॉयलेट - एक प्रेम कथा



टॉयलेट ,मैंने भी देख ली | साफ-सुथरी है | थोड़ा बहुत कूड़ा- करकट तो मंदिरों के आस-पास भी पाया जाता है ,इसलिए टॉयलेट में अधिक सफाई की उम्मीद करना बेमानी होगा | आप देशभक्त हैं ,तो टॉयलेट देखने में मजा आएगा ,आप मोदी भक्त हैं तो टॉयलेट देखने का आनंद दोगुना हो जायेगा |यदि आप पुराने रूढ़िवादिता ,अन्धविश्वास से नफरत करते हैं तो टिकट का पैसा वसूल होता महसूस करेंगे ,कुछ सीन में आप गुदगुदी का अनुभव करेंगे ,कुछ में आपको गुस्सा आएगा | हाँ यदि आप लोटा से प्रेम करते हैं तो बहुत निराशा होगी क्योंकि लोटा बार बार खूब पटका गया है ,फिल्म में लोटे की भयंकर बेइज्जती की गयी है |

मुद्दे की बात करें तो सारांश यही है कि अगर आपके घर में टॉयलेट नहीं है और आपके बाबूजी पुराने सोच वाले जिद्दी इंसान है तो पढ़ी लिखी लड़की से शादी करने का विचार त्याग दीजिये वरना पापड़ बेलने के लिए तैयार रहिये | फिल्म आपको शिक्षा देती है ,ऐसी परिस्थिति में पहले बाबूजी को समझा कर घर में टॉयलेट बनवायें फिर शादी करें वरना यही काम बाद में करना पड़ेगा तो पसीने छूट जायेंगे जैसा अक्षय कुमार को इस फिल्म में छूट रहा था | अक्षय ऐसी ही एक गलती कर बैठते हैं ,उनकी पत्नी भूमि को बाहर टॉयलेट जाना पसंद नहीं है और अक्षय के बाबू जी घर में संडास बनवाने के लिए राजी नहीं हैं | यही मामला तूल पकड़ता है और कहानी आगे बढ़ती है | 

फिल्म की कहानी में थोड़ा बहुत लोचा है मगर चलता है क्योंकि बिना मसाले के अचार नहीं बनता है |एक पति का पूरा फोकस अपनी नवविवाहिता बीवी को टॉयलेट करवाने पर ही रहता है ,पूरा प्यार इसी टॉयलेट के इर्द-गिर्द घूमता है |इसमें खूब प्यार दिखाई देता है ,इसलिए एक प्रेमकथा टाइटल बना कर जोड़ दिया गया है | अक्षय कुमार बहुत हाथ पैर मारते हैं कि मामला सुलझ जाये लेकिन उनकी बीवी मोदी जी बहुत बड़ी भक्त निकलती हैं और जिसके लिए उन्हें आने वाले टाइम में कोई अवार्ड भी मिल जाए तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं होगी| भूमि पेडनेकर ने बहुत बढ़िया एक्टिंग की है ,टॉयलेट न होने पर तलाक की बात करना मुझे इसलिए भी सही लगता है क्योंकि आजकल तो पढ़ी-लिखी लड़कियाँ बिना बात के तलाक ले लेती हैं ,यहाँ तो फिर भी कुछ पेंच वाली बात है |कहानी आगे बढ़ती है , ट्रैन में टॉयलेट के समय ट्रैन का नाटकीय ढंग से छूट जाना उनके जिद को और मजबूत कर देता है कि ससुराल में जब तक टॉयलेट नहीं बनेगा वो वहां नहीं जाएगी | अक्षय कुमार के पिताजी सुधीर पांडे ,पक्के पंडित और पुराने विचार वाले ठहरे सो उनकी भी अपनी जिद है कि बहु टॉयलेट बाहर ही जाएगी ,घर में नहीं बनेगा | अंत में तलाक की नौबत आ जाती है ,फिर ह्रदय परिवर्तन होता है | इसी बीच अक्षय कुमार की भागदौड़ से सरकार भी हिल जाती है मतलब कहानी में भ्रष्टाचार को भी जोड़ा जाता है और नोटबंदी का भी नाम लिया जाता है | भूमि के आंदोलन की चर्चा मीडिया में आती है ,गाँव की और भी औरतें लोटा छोड़कर इस आंदोलन से जुड़ती हैं ,मीडिया और तूल देता है ,लोटा पटका जाता है ,लोगों के घरों में भी विवाद होता है ,औरतें बाहर जाने से इंकार कर देती हैं और फिर सरकार हिल जाती है | अदालत में तलाक से ठीक पहले मुख्यमंत्री जी का लेटर भी आ जाता है और तलाक रुक जाता है ,पंडित जी का ह्रदय परिवर्तन हो जाता है और घर में ही नित्यकर्म का सारा अरेंजमेंट करवा देते हैं | फिल्म टॉयलेट के साथ सेल्फी पर ख़त्म हो जाती है |

फिल्म में अक्षय कुमार और भूमि के साथ साथ अक्षय के भाई के रोल में दिव्येंदु ने बेहद शानदार अभिनय किया है ,अभिनय के मामले में सुधीर पाण्डे जब जब स्क्रीन पर दिखाई देते हैं ,कमाल ही करते हैं | ससुर और पिता के रोल में उनका किरदार डराने वाला रहता है पर अंत भला तो सब भला | अनुपम खेर को ज्यादा काम नहीं मिला है ,डाउट होता है कि शायद स्वच्छता मिशन के इस फिल्म का हिस्सा वो जान बूझकर होना चाहते थे | उनका किरदार ठूसा गया था ,लेकिन जितना भी रोल मिला उन्होंने हमेशा की तरह प्रभावित किया | बाकि फिल्म के डाइरेक्टर नारायण सिंह जी ने हर कलाकार से फ़ीस के बराबर ठीक-ठीक काम करा लिया |

वैसे तो अक्षय कुमार प्रोफेशनल अभिनेता है मगर इस फिल्म में उन्होंने सरकार की थोड़ी बहुत चापलूसी की है,जो साफ-साफ दिखाई पड़ता है |अक्षय कुमार और अनुपम खेर राष्ट्रवाद के ट्रैक पर सरकार के स्वच्छता मिशन के झंडे को लेकर दौड़ते हुए अच्छे लग रहे थे | गाँधी जी के चश्में से देखने पर मै इस फिल्म को पाँच में से साढ़े तीन नंबर देना पसंद करूँगा | अगर स्वच्छता अभियान वाला चश्मा आप भी पहन कर जाये तो मजा आएगा | वैसे एक बार यह फिल्म सभी को देखनी चाहिए ,खासकर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में तो सरकार को यह फिल्म गाँव के लोटाप्रेमी पुरुष और महिलाओं को पकड़-पकड़ कर दिखवाने का भी कुछ प्रबंध करना चाहिए | अगर अक्षय कुमार और अनुपम खेर ने सरकार के मिशन को टॉयलेट के जरिये मजबूती देने का प्रयास किया है तो सरकार भी उनको मजबूती प्रदान करे |
--विनोद पांडेय