कल हरिभूमि में प्रकाशित में प्रकाशित मेरी एक व्यंग रचना...
बड़ा ही अफ़सोस हो रहा है लिखते हुए की क्या जमाना आ गया है कभी एक दौर था जब शेर-बाघ का नाम सुनते ही लोगों के पसीने छूट जाते थे,आवाज़ सुनते ही घिग्घियाँ बँध जाती थी, भले आवाज़ किसी टी. वी. या रेडियो से प्रसारित की गई हो और आज वहीं बेचारे अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहें हैं. सामाजिक संस्थाएँ और सरकार भी उन्हे बचाने के लिए तरह तरह के अभियान चलाने की घोषणा कर रहे हैं हालाँकि इसमें से कुछ घोषणाएँ तो सिर्फ़ घोषणाएँ ही रहने वाली है, फिर भी यह सोचने वाली बात है की जंगल के राजाओं के साथ ऐसा कैसे संभव हो सकता है,की आज उनकी जनसंख्या वृद्दि भारत के जनसंख्या वृद्दि के इनवर्सलि प्रपोसनल चल रही है, पर दुर्भाग्य इस बात का कि सालों साल से यह पुष्टि नही हो पा रही की इनकी घटती हुई आबादी के पीछे किसका हाथ है?मीडिया भी कभी कभी फ़ुर्सत में जब कोई मसाला न्यूज़ नही मिल पता तो यही न्यूज़ लेकर आ जाती है की बाघों की घटती संख्या पर सरकार को चिंता, अब आप ही बताइए खाली चिंता करने से कुछ काम बन पता तो कश्मीर मुद्दा कब का ख़तम हो गया होता और देश में सालों लाखों लोगो की जान भुखमरी से नही जाती, उन्हे ये भी जानना होगा की हर समय चिंता करना अच्छी बात नही कुछ काम भी करते रहनी चाहिए ताकि चिंता दूर हो सकें.
ये तो रही एक बात पर मेरी समझ में ये नही आता की आख़िर बाघों की संख्या इतनी तेज़ी से घट क्यों रही है, कौन से बाहरी घुसपैठियें है जो इनकी राजधानी में दखल कर के इन्हे ही वहाँ से टरकाने के मूड में आ गये है, काफ़ी कुछ सोचने के उपरांत इतना तो लगता ही है कि किसी और जंगली जानवरों में तो ऐसा दम नही जो अपने ही राजा के खिलाफ कोई मुहिम छेड़ सके. इसके अतिरिक्त अगर कोई और बचता है तो वह है आदमी वैसे भी बड़े बूढ़े कहते है भैया आदमी जो है वो जानवर से भी ज़्यादा शक्तिशाली और ख़तरनाक होता है क्योंकि उसके पास एक दिमाग़ होता है और वो उसे शातिर भी बना सकता है,वैसे भी कुछ उदाहरणों को देखते हुए कहा जा सकता है की आदमी में कुछ अलग ही बात है.तो फिर बात घूम फिर कर वही आ जाती है कि अब आदमी से जंगल के राजा को कैसे बचाया जाय,उनके खेमे में भी इस बात को लेकर खामोशी छाई रहती है तभी तो आज कल बेचारे चिड़ियाघर में भी मुरझाए से रहते है, और आदमी के सामने आने से बचते रहते है.
सरकार बहुत से सरकारी प्रयास कर रही है यहाँ तक की प्रधानमंत्री जी भी बाघ प्रजाति के बचाव के लिए आगे आ गये हैं और अपने ये प्रधानमंत्री बिल्कुल महंगाई के जैसे हैं,जो एक बार आगे बढ़ गये गये तो पीछे नही जाते इस प्रयास से शायद कुछ हल निकल जाए पर हमेशा की तरह एक सच्चे भारतीय होने के नाते हमें इस बात के लिए भगवान से प्रार्थना भी करनी पड़ेगी की सरकारी प्रयास सफल हो.
अगर शेर बाघ प्रजाति की रक्षा के लिए कुछ हो जाए तो बढ़िया है अन्यथा वो दिन दूर नही जब देश के साथ साथ देश के जंगलों की सत्ता भी गीदड़ और भेड़ियों के हाथ में आ जाएगी.
11 comments:
वो दिन दूर नही जब देश के साथ साथ देश के जंगलों की सत्ता भी गीदड़ और भेड़ियों के हाथ में आ जाएगी.
जंगल बचेंगे तब न. गीदड़ और भेडिये तो पहले ही जंगल छोड चुके है और शहरों मे बसने के आदी हो चुके हैं
आशंका जायज है
बढियां लिखा है भाई जी,बधाई.
ek din insaan ka bhi yahi haal hoga Vinod bhaai... achchhe vyangya ke liye badhai.
bahut acchhi post.
me bhi bas chinta hi kar pa rahi hu. :):)
आपने एक बेहद महत्वपूर्ण विषय का न सिर्फ चयन किया बल्कि उसे हल्के हास्य और व्यंग्य के मिश्रण से काफी धारदार बना दिया है. अब सरकारों को आघ-बाघ की चिंता नहीं होती. हो भी क्यों. बाघ कोई रिश्वत-डाली-तोहफे लेके आएँगे क्या? वोट तक तो देने से रहे. फिर इन में जाति, भाषा, इलाका जैसा मामला भी नहीं. फिर इनके होने न होने की चिंता में सरकार क्यों घुले.
वो दिन दूर नहीं जब जंगलों की सत्ता भी गीदड़ और भेड़ियों के हाथ में आ जाएगी..!
--तीखा व्यंग्य।
वो दिन दूर नही जब देश के साथ साथ देश के जंगलों की सत्ता भी गीदड़ और भेड़ियों के हाथ में आ जाएगी.
राजनीति पर अच्छा व्यंग किया है....बढ़िया
सुंदर रचना के लिए बधाई
एकदम सही लेख लिखा है आपने।
लेकिन एक सत्य है कि शेरों के शिकारों पर गिद्दड़ नाचते हैं। यकीन न आए तो भैया। देश के नेताओं की तरफ देख लें और शहीदों की तरफ।
वो दिन भी आना ही है ।
चिंता जायज़ है ।
अगर यही हाल रहा, तो बहुत जल्द वो दिन भी आ ही जायेगा. सटीक व्यंग्य.
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