आज प्रस्तुत है,आदरणीय पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर वर्षा के तरही मुशायरे में सम्मिलित मेरी एक ग़ज़ल...शुरू के 5 शेर पर पंकज जी का आशीर्वाद मिला है, मैने उसके बाद कुछ शेर और जोड़ दिए और वो सब मेरे शेर जस के तस आप सब के सम्मुख है..शिल्प की कुछ कमी हो सकती है मगर मैं खुद को रोक नही पा रहा हूँ....अब आप सब लोगों के आशीर्वाद की ज़रूरत.....धन्यवाद
फलक पे झूम रहीं साँवली घटाएँ हैं
हवाएं कानों में चुपके से गुनगुनाएँ हैं
फुहार गाने लगी गीत हसीं रिमझिम के
ठुमक-ठुमक के थिरकती हुई हवाएं हैं
उड़ेलने लगे बादल गरज के जलधारा
चमक-चमक के बिजलियाँ हमें डराएँ हैं
पड़े फुहार तो हलचल सी मचे तन-मन में
हज़ारों ख्वाइशें पल भर में मचल जाएँ हैं
उठे लहर जो कभी दिल में हसीं लम्हों का
खुदी से बात करें,खुद से ही शरमाएँ हैं
कोई स्वागत में खड़ा है,उफनते सावन के
कुछ घनघोर बारिशों से तिलमिलाएं हैं
बयाँ न हो रहीं किसान के घर की खुशियाँ
यूँ लगे कई सदी बाद, मुस्कुराएँ हैं
कहीं बूँदे,कहीं बारिश,कहीं है बाढ़
कहीं-कहीं तो मौत बन के बरस आएं हैं
तबाह कर दिए कुछ गाँव-कुछ शहर भी
सहम-सहम के लोग जिंदगी बिताएं हैं
टपकती बूँद छप्परों से भी गवाह बनी
ग़रीब किसी तरह लाज बस बचाएं हैं
10 comments:
वाह , बारिस का खूबसूरत वर्णन ।
ग़ज़ल का पहला भाग दिन के उजाले जैसा है।
दिन के बाद रात भी होती ही है ।
बढ़िया रचना ।
खूबसूरत गज़ल ..
Falak par jhoom rahi ...... waah kya Matla hai vinod ji aapko padhna shukhad raha ..
वाह विनोद जी ... अभी अभी पंकज जी के ब्लॉग पर इसको पढ़ कर आ रहा हूँ ... बहुत लाजवाब शेर कहे हैं और ये नये शेर तो और भी कमाल के लिखे हैं .... ख़ास कर ...
तबाह कर दिए कुछ गाँव-कुछ शहर भी
सहम-सहम के लोग जिंदगी बिताएं हैं
"पलक पे झूम रही सांवली घटाएँ हैं"
बहुत खूग्सुरत ग़ज़ल लिखी है विनोद भाई.... कुछ शेर तो पहले भी पढ़े, बाकी के शेर भी अच्छे हैं.
बहुत सुन्दर और शानदार प्रस्तुती!
शिक्षक दिवस की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें!
बहुत बढ़िया गजल
अभी अभी आपकी गजल की तरह ही जमकर बदल बरसे बिजली कडकी है और बदलो की गर्जना तो चल ही रही है ||
साथ ही ठीक घर के सामने खुली जगह में एक चोकीदार के छोटे से घर में हाथ पावँ सिकोड़े एक कमरे में भी न समाये इतने लोग बैठकर बारिश रुकने का इंतजार कर रहे है |
टपकती बूँद छप्परों से भी गवाह बनीग़रीब किसी तरह लाज बस बचाएं हैं
ऐसे में आज आपकी गजल सार्थक हो गई है |
तबाह कर दिए कुछ गाँव-कुछ शहर भी
सहम-सहम के लोग जिंदगी बिताएं हैं
बढ़िया रचना ।
कोई स्वागत में खड़ा है,उफनते सावन के
कुछ घनघोर बारिशों से तिलमिलाएं हैं
शानदार ग़ज़ल जिंदगी के सच के साथ
बधाई
चन्द्र मोहन गुप्त
waah..vinod ji..accha sama baandha hai.. :)
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