Friday, January 22, 2010

अपने ही समाज के बीच से निकलती हुई दो-दो लाइनों की कुछ फुलझड़ियाँ-3

कुछ ऐसे भी वीर हैं,भारतवर्ष में आज,
जिनकी अम्मा रो रहीं,देख पूत के काज.

मलमल का कुर्ता पहिन,घूम रहें हैं गाँव,
खबर नही क्या चल रहा,आटा-दाल का भाव.

आलस में डूबे हुए,इतने हैं उस्ताद,
घर में आते हैं मियाँ,दिन ढलने के बाद.

बीड़ी व सिगरेट में,फूँक दिए कुल देह,
बेच दिए बर्तन कई,घर में मचा कलेह.

नही कोई परवाह इन्हें,घर हो या परिवार,
चाहे भैया फेल हो,या हो बहिन बीमार.

जिंदा जब तक बाप है,तब तक है आराम,
फ्यूचर इनका क्या कहें,इज़्ज़त राखे राम.

21 comments:

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

आलस में डूबे हुए,इतने हैं उस्ताद,
घर में आते हैंमियाँ,दिन ढलने के बाद.
बीड़ी व सिगरेट में,फूँक दिए कुल देह,
बेच दिए बर्तन कई,घर में मचा कलेह.

बहुत सही चित्रण किया....

सच.... इज्ज़त राखे राम.....

निर्मला कपिला said...

आलस में डूबे हुए,इतने हैं उस्ताद,
घर में आते हैंमियाँ,दिन ढलने के बाद.
बीड़ी व सिगरेट में,फूँक दिए कुल देह,
बेच दिए बर्तन कई,घर में मचा कलेह.
वाह क्या बात है और
मलमल का कुरता पहन घूम------
सटीक अभिव्यक्ति । स्माज का सजीव चित्र बधाई आपको

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

कुछ नहीं बहुत सारे पाले हुए है इस देश में पांडेय जी, ठोस प्रहार करती रचना !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

जिंदा जब तक बाप है,तब तक है आराम,
फ्यूचर इनका क्या कहें,इज़्ज़त राखे राम.

विनोद पाण्डेय जी!
बहुत सुन्दर दोहे लिखें हैं आपने!
वर्तमान का सही नक्शा खींच दिया है!

प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी) said...

सच में पाण्डेय जी हमेशा की ही तरह समाज की कडवी सच्चाई पर नजर रखते हुए बेहतरीन रचना हर लायन अपने में एक बड़ी भारी विषमता समेटे हुए
सादर
प्रवीण पथिक

संगीता पुरी said...

बहुत बढिया रचना .. वैसे कुपुत्र तो समाज में हमेशा से हैं !!

राज भाटिय़ा said...

मलमल का कुर्ता पहिन,घूम रहें हैं गाँव,
खबर नही क्या चल रहा,आटा-दाल का भाव.
बहुत सुंदर जी आप की कविता से सहमत है

वन्दना अवस्थी दुबे said...

जिंदा जब तक बाप है,तब तक है आराम,
फ्यूचर इनका क्या कहें,इज़्ज़त राखे राम.

वाह क्या बात है. शानदार व्यंग्य रचना.

महेन्द्र मिश्र said...

बहुत बढ़िया वाकई ऐसा ही हो रहा हैं ...बहुत बढ़िया रचना बधाई पांडेजी

rashmi ravija said...

बहुत ही अच्छा व्यंग है...सही समय पर नहीं चेतने वाले नौजवानों के लिए...

Kulwant Happy said...

अभिव्यक्ति तो ऐसी।
फेसबुक एवं ऑर्कुट के शेयर बटन

डॉ. मनोज मिश्र said...

बेहतरीन प्रस्तुति,धन्यवाद.

लोकेन्द्र विक्रम सिंह said...

भैय्या कुछ ही है न.....
क्योकि यहाँ हम भी हैं......
एक सुन्दर कविता और बढ़िया कटाक्ष...
काश इसका असर भी हो....लोगो पर....

हरकीरत ' हीर' said...

बीडी व् सिगरेट में , बेच दिए कुल देह
बेच दिए बर्तन कई , घर में मचा कलेह

सही चित्रण.....ऐसे ही पूत कपूत होते हैं ..... हमारे बगल में ही है हर दिल घर का कोई न्कोई सामान गायब होता है ......!!

Mishra Pankaj said...

बहुत सुन्दर कविता विनोद जी !

दिगम्बर नासवा said...

जिंदा जब तक बाप है,तब तक है आराम,
फ्यूचर इनका क्या कहें,इज़्ज़त राखे राम.

विनोद जी आपके दोहे बिल्कुस सटीक हैं आज के कुछ नौजवानों पर ........ बहुत ही अच्छा व्यंग है ....

Urmi said...

वाह बहुत सुन्दर कविता लिखा है आपने! हर एक पंक्तियाँ दिल को छू गयी! इस उम्दा कविता के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!

Mithilesh dubey said...

बहुत ही उम्दा ।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

जिन्दा जब तक बाप है, तब तक है आराम
फ्यूचर इनका क्या कहें,इज्जत राखे राम.
...वाह.

Pawan Kumar said...

अच्छी फुलझड़ियाँ हैं.....तेवर और लफ्ज़ दोनों ही अच्छे हैं दोस्त...लिखते रहिये.

Urmi said...

आपको और आपके परिवार को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!