Tuesday, January 12, 2010

पावनता गंगाजल की, अपने अस्तित्व को जूझ रही.

मकर संक्रांति की अग्रिम शुभकामना के साथ एक चिंतनीय प्रकरण आप सब के समक्ष रखना चाहता हूँ.साथ ही साथ इस प्रक्रिया में सभी से सहयोग की भी अपील करता हूँ..


पावनता गंगाजल की,
अपने अस्तित्व को जूझ रही,

बूँदों से स्पर्शित होकर,
पापी मन पवित्र कहलाता,
तरो ताज़गी उपजे तन में,
निर्मल जल से जब धूल जाता,
वह जल जिसका एक आचमन,
स्वर्गद्वार के पट को खोले,
अंजुलि भर जलधारा मानो,
हरे विकार भक्ति रस घोले,

मंद पड़ गये भक्ति भाव सब,
जल विकृत हो सूख रही,

भागीरथ के अथक प्रयासों से,
ज़ो पृथ्वी पर आयी हैं,
शिव की जटा सुशोभित करती,
नीर धरा पर बरसायी हैं,
हिमआलय की गोद से निकली,
नदियों की रानी स्वरूप,
मगर आज धूमिल दिखती है,
क्यों उनका प्राचीनतम रूप,

कलयुग के समक्ष नतमस्तक,
मन ही मन सब बूझ रही,

गंगाजल की आज शुद्धता,
धीरे धीरे क्षीण हो रही,
दूषित 'कल' के जल से गंगा,
निर्मलता से हीन हो रही,
सोचो कुछ हे भारतवासी,
हृदय से एक संकल्प उठाओ,
गंगा माँ की पुनः शुद्धता,
जननी को फिर से दिलवाओ,

जो प्रतीक थी पवित्रता की,
आज वहीं अपवित्र हो रही.

17 comments:

अविनाश वाचस्पति said...

सच्‍चाई बहुत कठिन है झेलना।

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

कलयुग के समक्ष नतमस्तक,मन ही मन सब बूझ रही,
गंगाजल की आज शुद्धता,
धीरे धीरे क्षीण हो रही,दूषित 'कल' के जल से गंगा,
निर्मलता से हीन हो रही,
सोचो कुछ हे भारतवासी,
हृदय से एक संकल्प उठाओ,
गंगा माँ की पुनः शुद्धता,
जननी को फिर से दिलवाओ,
जो प्रतीक थी पवित्रता की,
आज वहीं अपवित्र हो रही.

बहुत सही और सार्थक बात कही.... गंगा को हमें अपवित्र होने से बचाना है... और इसका संकल्प हमें लेना ही होगा....

अजय कुमार झा said...

विनोद भाई गंगा को समर्पित और उसके सच को उकेरते ही बहुत ही उम्दा रचना , आज फ़िर प्रभावित किया आपने , अद्भुत रचना
अजय कुमार झा

संगीता पुरी said...

काश बस इस बात को समझ पाते .. तो आज गंगा इस हालत में नहीं होती !!

Udan Tashtari said...

अच्छी और सार्थक पोस्ट. इस दिशा में जारुकता की जरुरत है. गंगा को स्वच्छ करने में जो भी जितना योगदान कर सके करे और इस ओर लोगों को जागृत करे, यही समय की मांग है.

rashmi ravija said...

कविता के माध्यम से बहुत बड़े सत्य को उजागर किया है,आपने....गंगा की निर्मलता धीरे धीरे क्षीण हो नहीं रही...हो गयी है..और उसकी निर्मलता भी हर ली गयी है...मन बहुत दुखी हो जाता है,गंगा की ये दशा देख..कुछ ठोस और जरूरी...कदम जल्दी ही उठाने चाहिए...

Khushdeep Sehgal said...

मानो तो गंगा मां हूं, न मानो तो बहता पानी...

आपको लोहड़ी और मकर संक्रांति की बहुत बहुत बधाई...

जय हिंद...

Smart Indian said...

सुन्दर रचना और सार्थक आह्वान! धन्यवाद!

Mithilesh dubey said...

बहुत खूब विनोद भाई , आपकी इस रचना के सामने नतमस्तक हूँ । बहुत दुःख होता है जब इस पावन गंगा में बाजार की गंदगिया बहते देखता हूँ , लेकिन शायद इसके जिम्मेदार हम भी कहीं न कहीं है ।

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

सुन्दर रचना विनोद जी , गंगा माई तो इसी बात पर दुखी है कि ये इसके सपूत उसकी सफाई के नाम पर ही पिछले कई दशको में खरबों रूपये डकार गए !

दिगम्बर नासवा said...

पावणी गंगा का मीठा जल हलाहल हो गया ............ बहुत ही सार्थक लिखा है ......... हमारी पहचान गंगा से ही है .... काश हम इस बात को पहचान पाते ........ समय रहते जाग जाएँ तो बहुत अच्छा है ............

Amrendra Nath Tripathi said...

अच्छा laga यह जानकार की आप क्लासिक
रचना लिखने में भी रूचि रखते हैं ...
हाँ , इतना गाढ़ा नीला न रखिये तो अच्छा
हम जैसे आँख से कमजोर लोगों को चौधिया देता है ... आभार ,,,

अजित गुप्ता का कोना said...

पावनता तो आज क्‍या गंगाजल की और क्‍या किसी और की, अपने अस्तित्‍व को जी जूझ रही है। अच्‍छे विचार के लिए बधाई।

महेन्द्र मिश्र said...

बहुत ही उम्दा रचना

डॉ. मनोज मिश्र said...

बहुत सुंदर और सामयिक रचना ,बधाई.

kshama said...

Sach ! Gar jald hee kuchh na kiya gaya to Ganga itihaas ban jayegi..

देवेन्द्र पाण्डेय said...

माँ गंगा को समर्पित प्रेरक शब्दांजलि के लिए बधाई.

तन कर देखो तो मैली है
झुककर देखो तो दर्पण.

...वस्तुतः गंगा की गन्दगी में हम अपना ही चेहरा देखते हैं. अफ़सोस, कोई देखना ही नहीं चाहता!