दिन का तीसरा पहर,
जब ठंड अपनी परिसीमा पर था,
सरसराती हवा के झोंके,
मंद गति से बह रहे थे,
जल की ठंडी-ठंडी बूँदे,
कानों में बादलों का,
फरमान पढ़ रहे थे,
समस्त वातावरण जब ठंड के,
आगोश में ढल रहा था,
जैसे रात्रि के आगमन का,
पूर्वाभ्यास चल रहा था,
जब सूरज की किरणें भी,
आसमाँ तक ही सिमट गयी थी
और जब यह धरा पूर्ण रूप से,
कोहरे से पट गयी थी.
बस ऐसा ही वो वक्त था,
राह से गुजरते हुए मैने,
अपनी इन आँखों ने देखा,
इस दुनिया के अलग-अलग रंग,
जाड़े की कपकपाती ठंड में,
कई जीवंत दृश्य सामने आए,
आधुनिकता,भौतिकता,ममता,
तीनों ने अपने वास्तविक स्वरूप दिखलाए.
प्रकृति के इस भयावह दौर में,
जहाँ एक ओर,
सर से पाँव तक गर्म वस्त्रों में ढका मानव,
जाड़े से आँख-मिचौली खेल रहा था,
वहीं दूसरी ओर,
मटमैली सी फटी चादर में ठिठुरता,
बचपन मौसम की मार झेल रहा था.
ठंड निवारक यंत्रो से सुसज्ज्जित,
सड़क के बीचोबीच दौड़ती वाहनों में,
सुरक्षित मनुष्य का एक वर्ग,
एक जाति,एक समुदाय,एक परिवार,
और वहीं सड़क से ठीक सटे,
नालों के पार बसा,
एक दूसरा संसार,
जिन्हे मिली थी बस एक अधखुली झोपड़ी,
ताकि बस किसी तरह गुजर-बसर कर सकें,
वो लोग जिन्हे हम गरीब कहते है,
वैसे तो इसी दुनिया के अंग हैं.
पर दुनिया के हो कर भी गुमसुदा है,
क्योंकि इस चमक-दमक की दुनिया में,
वो लोग भौतिकता से बिल्कुल जुदा हैं.
भगवान की दुआ कहें,
या सरकारी रहम,
जो उनके लिए थोड़ी सी अलाव,
की व्यवस्था हो जाती है,
बस इतनी रहम पर हाथ सेंक कर,
गरीब की आत्मा सो जाती है,
वरना इस कड़कड़ाती ठंड में,
काँपते हुए,
दुनियादारी में मिले ज़ख़्मों को,
अपने अपनों में बाँटते हुए,
बातों ही बातों में रात गुज़ार देते है.
20 comments:
यह विनोद नहीं तीखी सच्चाई है
पर नेताओं की बनाई है और
उन्हें खूब रास आई है
उन्होंने ही इनकी पैदावार बढ़ाई है
वे नहीं चाहते गरीबी हटे
चाहे गरीब हट जायें
पर उनके वोट कम न होने पायें
और गरीब नहीं रहेंगे तो
अमीर तुलना किससे करेंगे ?
प्रत्येक निहायत जरूरी है।
विनोद भईया कहाँ गायब हो गये थे बिना बताये , ऐसे मत जाये करिये भाई साहब , लेकिन आते ही धमाका कर दिया आपने , लाजवाब लगी आपकी कविता ।
बढ़िया सजीव चित्रण किया है , शुभकामनायें !
यही विडम्बना है...किसी के पास सब कुछ और किसी के पास कुछ भी नहीं....अच्छी प्रस्तुति
दुनियादारी में मिले ज़ख़्मों को,
अपने अपनों में बाँटते हुए,
बातों ही बातों में रात गुज़ार देते है.
बहुत ही भावूक कविता
धन्यवाद
इस चमक-दमक की दुनिया में,
वो लोग भौतिकता से बिल्कुल जुदा हैं.
जी हाँ यही सच्चाई है और विचलित कर देने वाली सच्चाई
सुन्दर रचना
nice
31 डिग्री से. की गर्मी में ऐसी रचना ऐ.सी. सी ही लगी..
उत्कृष्ट रचना -मानवता का परचम आज उन्ही लोगों से ही लहरा रहा है -असली धरती पुत्र तो वही हैं !
रचना तो अच्छी है भाई,बधाई.
कदवा सच है इस रचना मे बहुत पसंद आयी रचना बधाई और शुभकामनायें
एक ओर,सर से पाँव तक गर्म वस्त्रों में ढका मानव,जाड़े से आँख-मिचौली खेल रहा था,वहीं दूसरी ओर,मटमैली सी फटी चादर में ठिठुरता,बचपन मौसम की मार झेल रहा था.
saarthak rachana.
Aaj ka sach ujagar karatee hui.....
आदरणीय पांडे जी !
जिंदगी में चलते चलते यूँ ही एक ऐसा मसीहा मील गया, जिसे देख मान में ऐसा भाव आया की एक मशाल हाथ आ जाये और सारी दुनिया से बताऊँ मैंने एक मसीहा पाया है अभी अभी तो प्रयास चालू ही किया है आपका सहयोग चाहिए !
http://thakurmere.blogspot.com/
बहुत सार्थक और लाजवाब रचना.....
sajeev chitran kia hai kadvi sachcha i ka.bhaut badiya
वैज्ञानिक युग में भी न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो पाना दुखद है.
ek katu satya kaha hai jise har koi janta bhi hai magar phir bhi anjaan rahna chahta hai.........gazab ki prastuti.
सच लिखा है विनोद जी ... सर्दी के मौसम में ग़रीब आदमी को सबसे ज़्यादा तकलीफ़ होती है ...
संवेदनशील मन से उपजी रचना है .... बहुत लाजवाब रचना ...
बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने! बधाई!
Aise laga jaise swayam qudratke nazare aankhon se dekh rahe hon, kasak aur khushi saath,saath chal rahe hon!
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