Saturday, March 6, 2010

जाड़े के दिन से जुड़ा मेरा एक अनुभव-२(विनोद कुमार पांडेय)

कोहरे से घिरे आदमियों के,
भीड़ में,मैने एक और अजीब दृश्य देखा,
यूँ कहें इक्कीसवीं शताब्दी के,
विकसित भारत का एक सूक्ष्म उदाहरण,
भारत की भावी पीढ़ी,
एवम् उसका भविष्य देखा,
बदन पर मात्र एक सूती वस्त्र डाले,
नंगे पैर,और आँखों में भूख लिए हुए,
मूँगफली के छिलकों के ढेरों को,
शाम का नाश्ता ढूढ़ रहा था,
तनिक भी भय नही था,
उस भीषण ठंड का,
बहादुरी नही,यह उसकी लाचारी थी,
जब भूख की आग,
मौसम के उस शीतलहर पर भारी थी.

अनुभव की इस कड़ी में,
जहाँ हमने विषमता देखी,
वही एक माँ की ममता भी देखी,
जो अपने वस्त्रों के टुकड़े कर,
अपने नवजात को ठंड से बचा रही थी,
और खुद हवा के तेज थपेड़े खा रही थी.

जाड़े का वह दिन,
मैं सोचने पर विवश हुआ,
संसार की विविधता,
सोचने पर विवश हुआ,
आख़िर क्यों एक आम ग़रीब आदमी की जिंदगी,
इस कदर तंगहाल है,
जहाँ आधी दुनिया अपने घरों में,
खुशियाँ मनाती है,
वहीं ग़रीबों को एक मुस्कान,
भी बड़ी मुश्किल से आती है,
एक ओर तो लोग मौज करते है,
और एक ओर ये बेचारे,
गर्मी में लूँ से,
बरसात में पानी से,
जाड़े में ठंड से मरते है.

अब तक इस प्रश्न का जवाब ढूढ़ रहा हूँ,
जिसका उत्तर शायद ही किसी के पास हो!!!

13 comments:

M VERMA said...

तनिक भी भय नही था,
उस भीषण ठंड का,
बहादुरी नही,
यह उसकी लाचारी थी,
जब भूख की आग,
मौसम के उस शीतलहर पर भारी थी.
बहुत मार्मिक दृश्य दिखाय विनोद जी आपने भावी पीढी का.
सुन्दर आकलन और रचना

kshama said...

Aapne aanken nam kar deen..

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर ओर मार्मिक

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

जाड़े का वह दिन,मैं सोचने पर विवश हुआ,संसार की विविधता,सोचने पर विवश हुआ,आख़िर क्यों एक आम ग़रीब आदमी की जिंदगी,इस कदर तंगहाल है,जहाँ आधी दुनिया अपने घरों में,खुशियाँ मनाती है,वहीं ग़रीबों को एक मुस्कान,भी बड़ी मुश्किल से आती है,एक ओर तो लोग मौज करते है,और एक ओर ये बेचारे,गर्मी में लूँ से,बरसात में पानी से,जाड़े में ठंड से मरते है.

बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है यह पोस्ट.... सच्चाई को बहुत खूबसूरती से बयाँ किया है...

सच में! इसका जवाब किसी के पास नहीं है...

डॉ. मनोज मिश्र said...

pandey jee,rchna achhee lgee,aabhar.

संगीता पुरी said...

बहुत कुछ सोंचने को मजबूर कर रही है यह रचना .. पर शायद किसी के पास नहीं है इसका जबाब !!

दिगम्बर नासवा said...

विनोद जी ... ऐसे बहुत से जवाब नही हैं किसी के पार ... ग़रीबी की मार बहुत कड़ी होती है ... जो भोगता है वो ही बीटीये सकता है ... बहुत संवेदनशील रचना ...

शरद कोकास said...

हर कोई इस सवाल का जवाब ढूँढ रहा है ।

हरकीरत ' हीर' said...

बहुत मार्मिक दृश्य खींच दिया आपने विनोद जी .....!!

निर्मला कपिला said...

तनिक भी भय नही था,
उस भीषण ठंड का,
बहादुरी नही,
यह उसकी लाचारी थी,
जब भूख की आग,
मौसम के उस शीतलहर पर भारी थी.
बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति है सही मे गरीबों की दशा विचलित कर देती है। और आपकी कलम हमेशा इन की त्रास्दी पर मुस्तैद रहती है। काश कि कोई सरकार भी इनके बारे मे ऐसे ही सोचे। बहुत बहुत शुभकामनायें आशीर्वाद।

सदा said...

बेहद मार्मिक प्रस्‍तुति दिल को छूते गहरे भावों के साथ अनुपम शब्‍द रचना ।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

निर्धन क नियति में धक्का
काहे हौवा हक्का बक्का!
...अच्छी पोस्ट के लिए बधाई.

Bhawna said...

ग़रीबों को एक मुस्कान,भी बड़ी मुश्किल से आती है.....
अत्यंत मार्मिक