Monday, July 5, 2010

रोज चेहरा बदलने लगा आदमी-----(विनोद कुमार पांडेय)

रोज चेहरा बदलने लगा आदमी
आदमी को ही छलने लगा आदमी

प्यार गायब हुआ,नफ़रतें बढ़ रही
आज अपनों से जलने लगा आदमी

दूसरों को दबा कर- सता कर, स्वयं
फूलने और फलने लगा आदमी

संस्कारों को ठोकर लगाते हुए,
आधुनिकता में ढलने लगा आदमी

चालबाजी भरी,फितरतें सीख कर
दाँव पर दाँव चलने लगा आदमी

कलयुगी ये हवा इस तरह लग गई
बर्फ की भाँति गलने लगा आदमी

थोड़ी बरकत खुदा से जो क्या मिल गई
मूँग छाती पे दलने लगा आदमी

आदमीयत को किसकी नज़र लग गई
आदमी को ही खलने लगा आदमी


17 comments:

sandhyagupta said...

आदमीयत को किसकी नज़र लग गई
आदमी को ही खलने लगा आदमी

Baat pate ki hai.sarthak rachna.

vandana gupta said...

गज़ब की रचना है………………आईना दिखा दिया
चेहरे पर लगे मुखौटे को उतार दिया।

निर्मला कपिला said...

विनोद जी हर एक शेर लाजवाब है आज की असलीयत को ब्याँ करता हआ। बहुत बहुत बधाई।

डॉ टी एस दराल said...

आदमी को ही छलने लगा आदमी । बहुत खूब। सुन्दर भाव।

Satish Saxena said...

क्या हो गया विनोद ! यह कमेंट्स कहाँ गायब हो जाते हैं ! तुम्हारी साईट पर भी ,मेरी तरह ,सुबह ६ बजे के बाद, एक भी कमेन्ट न पाकर दिल कुछ हल्का हुआ ;-) आखिर हूँ तो ब्लागर ही
( मेरे ब्लाग पर पिछले कई घंटे से आये सारे कमेन्ट गूगल खा गया ). एक शेर नज़र है

दिल खुश हुआ मस्जिद ए वीरान देख कर
मेरी तरह खुदा का भी खाना खराब है !

वाणी गीत said...

आदमियत को किसकी नजर लगी
आदमी को खलने लगा है आदमी ...
आदमी की सही पहचान उजागर कर दी है आपनी कविता के माध्यम से ..!!

Pawan Kumar said...

आदमीयत को किसकी नज़र लग गई
आदमी को ही खलने लगा आदमी
क्या शेर है दोस्त ..........जिंदाबाद

संध्या आर्य said...

hamesha ki tarah ..........behad khubsurat..........

ZEAL said...

आदमीयत को किसकी नज़र लग गई
आदमी को ही खलने लगा आदमी...

dukhad parivartan !

दिगम्बर नासवा said...

संस्कारों को ठोकर लगाते हुए,
आधुनिकता में ढलने लगा आदमी

आज कर संस्कारों की बात कौन करना चाहता है ... बहुत आज के ज़माने के शेर लिखे हैं विनोद जी ....
समाज पर व्यंग करते हुवे अच्छे शेर हैं सब ...

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

Aadmi ki hakeekat ko khol ke rakh diya aapne.

हरकीरत ' हीर' said...

आदमियत को किसकी नज़र लग गयी
आदमी को ही खलने gla आदमी .......

waah .....kya gazab kahaa ......!!

अरुण चन्द्र रॉय said...

bahut gehri gazal! gambhir baat sahaj shabdon me ! aapke blog par sabhi rachnaayen bhavpoorn aur saartthak hain !

Dr.R.Ramkumar said...

दूसरों को दबा कर- सता कर,
स्वयं फूलने और फलने लगा आदमी

संस्कारों को ठोकर लगाते हुए,
आधुनिकता में ढलने लगा आदमी

आदमीयत को किसकी नज़र लग गई
आदमी को ही खलने लगा आदमी


Ghazal aChhi hai aur haqeekat ko bayan karte khyalat hain...
umda ghazal....

दीपक 'मशाल' said...

पता नहीं क्या-क्या और रह गया है जो ये आदमी करेगा भाई.. अच्छा लिखा..

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

पाण्डेय जी,
नमस्कार!
वैलकम टू कलयुग!

M VERMA said...

थोड़ी बरकत खुदा से जो क्या मिल गई
मूँग छाती पे दलने लगा आदमी
क्या बात है .. यथार्थ चित्रण