चार दिन की जिंदगी है, जिये जा
मौज सारे जिंदगी के, लिये जा
सभ्यता के नाम पर मॉडर्न हो
छोड़ कर ठर्रा विदेशी पिये जा
क्या पता कल हो न हो,ये सोचकर
सब्र को हर रोज फाँसी, दिये जा
बाप ने जितना बचा कर है रखा
छान-घोंट सब बराबर किये जा
हादसों का है शहर तुम क्या करोगे
देख कर बस होंठ अपने सिये जा
12 comments:
बहुत अच्छी कविता।
हिन्दी की प्रगति से देश की सभी भाषाओं की प्रगति होगी!
वाह विनोद, मज़ा आ गया!
रोचक। मनोरंजक।
बहुत अच्छा लिख रहे हो भैया ...बढ़िया व्यंग्य ! शुभकामनाएं
हास्य में भी व्यंग है ..बढ़िया प्रस्तुति
अति सुन्दर प्रस्तुति के लिये, आप का धन्यवाद!!
wonderful creation !
सही व्यंगात्मक हास्य ।
shaabaash.mazaa aa gayaa. haasya bhi hai aur vyangya bhi aisa kam hota hai ki dono kasantulan banaarahe. sundar kavita ke liye badhaai.
पढ़ कर अच्छा लगा . एक सीधी सादी नाक की सीध में चलती रचना.
बाप ने जितना बचा कर है रखा
छान-घोंट सब बराबर किये जा ..
बहुत खूब ... ग़ज़ब के हास्य और व्यंग का मिश्रण है विनोद जी .....
acchi hai
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