Sunday, December 5, 2010

महानगर की चकाचौंध---(विनोद कुमार पांडेय)

पिछले कुछ दिनों से लगातार ग़ज़लों की प्रस्तुति के बाद आज एक गीत प्रस्तुत कर रहा हूँ..रचना की पृष्ठभूमि मेरी पसंदीदा हास्य-व्यंग्य ही है..उम्मीद करता हूँ. एक लंबे अंतराल के बाद मेरा यह प्रयोग आप सब का मनोरंजन करने में सफल रहेगा..धन्यवाद!

धक्का-मुक्की,हल्ला-गुल्ला,लोग-लोग पर टूटे हैं||
महानगर की चकाचौंध को,देख पसीने छूटे हैं||

आसमान की नाक पकड़ती मंज़िल बड़ी-बड़ी देखी,
गीत सुनाती लिफ्ट भी देखी,सीढ़ी खड़ी-खड़ी देखी,
सिगरेटों के धुएँ उड़ाते पुरुषों की भी लड़ी देखी,
बीयर-बार में बालाओं को टल्ली हुई पड़ी देखी,

उनके माँ-बाबूजी से तो भाग्य-विधाता रूठे हैं||महा.

मस्त चमाचम सड़कें चमकें तनिक नही भी धूल दिखे,
पंचसितारा होटल जैसे बच्चों के स्कूल दिखे,
गंदे नाले ऐसे दिखते जैसे स्वीमिंग पूल दिखे,
लंबी-चौड़ी जाम दिखे पर बढ़िया ट्रैफिक रूल दिखे,

चौराहे पर हवलदार भी बढ़िया रुपया लूटे हैं||महा.

शॉपिंग-मॉल के अंदर झाँके देख नज़ारा खीस लगे,
४४ के हुए चचा पर देखो तो २४ लगे,
हरियाली की दशा देख कर मन में थोड़ा टीस लगे,
ग़लती से भी थूक दिए तो उसके भी कुछ फीस लगे

समतल राहों में भी देखा जगह-जगह पर खूटे हैं||महा.

कपड़े,खाने और खिलौनों से दुकान सब भरे मिले,
लड़के और लड़कियाँ दोनों वस्त्र मोह से परे मिले,
भूखे और ग़रीब शहर में सहमें एवं डरे मिले,
लोग सजे-सँवरे दिखते हैं बूढ़े भी छरहरे मिले,

चमकीलें कुर्तों के उपर रंग-बिरंगे बूटे हैं||महा.

दिन को साथ लपेटे घूमें ऐसी काली रात दिखी,
चालीस साल का दूल्हा लेकर स्पेशल बारात दिखी,
स्पेशल बाइक-कारें और स्पेशल औकात दिखी,
छोटी-छोटी बातों पर भी भारी जूता-लात दिखी,

नया दौर का नाटक देखा सोचा लगा अनूठे हैं||

महानगर की चकाचौंध को,देख पसीने छूटे हैं||

13 comments:

अविनाश said...

सुंदर है
पर इसे और बेहतर बनायें
बनाते हुए इसे गुनगुनाते जायें
सतीश सक्‍सेना जी को पहले पढ़वायें
फिर फाईनल रूप इसका ब्‍लॉग पर लायें

केवल राम said...

नया दौर का नाटक देखा सोचा लगा अनूठे हैं||
महानगर की चकाचौंध को,देख पसीने छूटे हैं||
Xxxxxxx
आपने बहुत गहराई से आपने महानगर की स्थितियों का आकलन किया है , अंदाज -ए-वयां काफी रोचक है .....शुक्रिया

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

काफी चौंधिया गए हैं चमक देख कर ..बहुत अच्छी प्रस्तुति

डॉ. मोनिका शर्मा said...

नया दौर का नाटक देखा सोचा लगा अनूठे हैं||
महानगर की चकाचौंध को,देख पसीने छूटे हैं||
बड़ी प्रासंगिक पंक्तियाँ हैं .....

निर्मला कपिला said...

धक्का-मुक्की,हल्ला-गुल्ला,लोग-लोग पर टूटे हैं||
महानगर की चकाचौंध को,देख पसीने छूटे हैं||
आपकी रचना पढ कर ही हमारे तो पसीने छूट रहे हैं इसी लिये हम इस छोटे से सुन्दर शहर मे बैठे हैं। बधाई इस बेहतरीन रचना के लिये।

Kailash Sharma said...

महानगरीय स्थिति का गहन चित्रण..अच्छी प्रस्तुति

डॉ टी एस दराल said...

बहुत बढ़िया लिखा है । निखार आ रहा है रचनाओं में ।

अरुण चन्द्र रॉय said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति

देवेन्द्र पाण्डेय said...

हास्य-व्यंग्य की श्रृंखला में एक और मोती।
..बधाई।
मस्त चमाचम सड़कें चमकें तनिक नही भी धूल दिखे
..भी अधिक लग रहा है। या फिर
मस्त चमाचम सड़कें चमकें नहीं तनिक भी धूल दिखे

Anonymous said...

Pandey Ji,..Chha gye tussi...!!

AMAN said...

wah wah, vinod ji din ba din apki rachanaye ek yovan mai sajti hui ek khubsurat nari ki tarah manmohak hoti ja rahi hai, bahut khub vinod ji.

shashiKant said...

ॅॄye mahanagar hai pandey ji, aur hamari bhasha me ye maha shabd usi ke sath jurhta hai jo sabse alag hota hai jaise ki" aap purush nahi mahapurush hai".
Vaise aapki ye rachna bahut achhi hai....

Rohit Khetarpal said...

Acchi koshish thi....lage raho..
Kuch jagah lay missing lagi...shabdon ki hera pheri se bhi nikhar aayega shayad....