Thursday, May 13, 2010

हम तुम्हारे लिए जाल बुनने लगे,तुम हमारे लिए फंदे कसने लगे-----(विनोद कुमार पांडेय)

हम तुम्हारे लिए जाल बुनने लगे,
तुम हमारे लिए फंदे कसने लगे,

आज फ़ितरत यहीं आदमी की हुई,
आदमी आदमी को ही डसने लगे.

ना दुआएँ रही याद माँ-बाप की,
हर तरक्की पे अपने हरषने लगे.

जिस पिता ने गले से लगा कर रखा,
अब वहीं इक झलक को तरसने लगे.

स्नेह आदर में ऐसी मिलावट बढ़ी,
प्रेम की ओट में लोग झंसने लगे.

जंगलों की जगह पर शहर बन गया,
जानवर बस्तियों में भी बसने लगे.

अहमियत प्यार की,झूठ पर है टिकी,
सो दिखावे में ही लोग फँसने लगे.

हाले दिल भी बयाँ,मैं करूँ तो कहाँ,
मेरे अपने ही जब मुझपे हँसने लगे.

21 comments:

दिलीप said...

waah Vinod ji kadva sach likha hai aapne...sundar aur dhaardaar abhivyakti...

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

Aaj kaa yathaarth pesh kar diyaa aapne !

M VERMA said...

आज फ़ितरत यहीं आदमी की हुई,
आदमी आदमी को ही डसने लगे.
अब तो नाग भी बेरोजगार हो गये है%
बहुत सुन्दर गज़ल

Mithilesh dubey said...

बहुत ही उम्दा लिखा है भईया आपने , सच को दर्शाती लाजवाब लगी आपकी रचना ।

Udan Tashtari said...

सच कहा...कहाँ बयां करुं हाले दिल अपना...


बेहतरीन विनोद!!

बधाई.

राज भाटिय़ा said...

विनोद भाई बहुत ही सुंदर लगी आप की यह अनमोल कविता, धन्यवाद

दीपक 'मशाल' said...

हरेक शेर जबरदस्त चोट करने की क्षमता रखता है.. कामयाब रचना विनोद भाई..

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

हम तुम्हारे लिए जाल बुनने लगे,तुम हमारे लिए फंदे कसने लगे,
आज फ़ितरत यहीं आदमी की हुई,आदमी आदमी को ही डसने लगे.

आदमीयत जो न कराए वो कम ही है!
बहुत सुन्दर रचना!

नीरज गोस्वामी said...

आज फ़ितरत यहीं आदमी की हुई,
आदमी आदमी को ही डसने लगे.

वाह विनोद जी वाह...बहुत अच्छी रचना है आपकी...बधाई...इसी भाव से मिलता जुलता एक शेर कभी मैंने भी कहा था:
सांप से बेकार ही में दर रहा है आदमी
काटने से आदमी के मर रहा है आदमी

नीरज

Kulwant Happy said...

जानवर बस्तियों में बसते लगे और मेरे अपने ही हँसने लगे, अद्बुत गुरूदेव। अद्भुत।

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

वाह विनोद जी,
हाले दिल भी बयाँ,मैं करूँ तो कहाँ,
खूब कही आपने.
... जज़्बात अपने ग़ज़ल में आप कहने लगे.

rashmi ravija said...

हम तुम्हारे लिए जाल बुनने लगे,
तुम हमारे लिए फंदे कसने लगे,
आज फ़ितरत यहीं आदमी की हुई,
आदमी आदमी को ही डसने लगे.
बिलकुल सच बयाँ कर दिया है...इन शब्दों में...यही फितरत हो गयी है,इंसानों की

Urmi said...

सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने शानदार रूप से प्रस्तुत किया है! लाजवाब रचना !

डॉ. मनोज मिश्र said...

सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति,बेहतरीन रचना.

योगेन्द्र मौदगिल said...

wahwa....

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

अहमियत प्यार की,झूठ पर है टिकी,
सो दिखावे में ही लोग फँसने लगे.
हाले दिल भी बयाँ,मैं करूँ तो कहाँ,
मेरे अपने ही जब मुझपे हँसने लगे.

वाह पांडेय जी, बहुत ही बढ़िया रचना है ... आज समाज की हालत ऐसी ही हो गई है ... आपने यथार्थ को बयां किया है ..
आप मेरे ब्लॉग पर आकर मेरी रचना को पसंद किये, इसके लिए तहेदिल से शुक्रिया ... आपका हमेशा स्वागत है ... आते रहिएगा ...

Parul kanani said...

bahut khoob! :)

दिनेश शर्मा said...

अच्छा लिखा है। साधुवाद!

निर्मला कपिला said...

जिस पिता ने गले लगा रखा था---- बिलकुल सही कहा। शायद बहुत सी अच्छी रचनायें पढने से छूट रही हैं मगर क्या करूँ मजबूर हूँ। आशीर्वाद्

डॉ टी एस दराल said...

जंगलों की जगह पर शहर बन गया,
जानवर बस्तियों में भी बसने लगे.

आह , क्या बात कही है ।
बहुत सुन्दर रचना ।

alka mishra said...

जानवर अब बस्तियों में .....
और
मेरे अपने ही मुझ पर हंसने .......
मुझे लगता है कि मानवीय संवेदनाओं की पृष्ठभूमि पर ये रचना उत्तम ठहरेगी