Tuesday, November 30, 2010

दिल में राम बसा कर देखो--(विनोद कुमार पांडेय)

नवंबर का पूरा महीना ग़ज़लों को समर्पित करते हुए आज आप सभी का स्नेह और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए एक और ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ॥

घृणा-बैर मिटा कर देखो
नेह के बीज उगा कर देखो

मन-मंदिर सब एक बराबर
दिल में राम बसा कर देखो

अपनों की रुसवाई देखी
गैरो को अपना कर देखो

सुख-दुख जीवन के दो पहलूँ
ऐसा ध्येय बना कर देखो

स्वर्ग-नर्क सब धरती पर है,
घर से बाहर आ कर देखो

बहरी है सरकार हमारी,
चाहो तो चिल्ला कर देखो

होती है क्या ज़िम्मेदारी
घर का बोझ उठा कर देखो


कितनी कीमत है रोटी की
निर्धन के घर जाकर देखो

17 comments:

Amit Chandra said...

किस शेर की तारीफ करू। सारे एक से बढ़कर एक है। बेहतरीन गजल। आभार

Satish Saxena said...

"
कितनी कीमत है रोटी की
निर्धन के घर जाकर देखो"

बहुत बढ़िया लिख रहे हो विनोद ! हार्दिक शुभकामनायें

अविनाश वाचस्पति said...

दिल में सिर्फ राम ही क्‍यों
रहीम को भी बसाइये
गुण अपनी गजलों में
इंसानियत के सदा गाइये।


बेबस बेकसूर ब्‍लूलाइन बसें

संजय भास्‍कर said...

आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।

संजय भास्‍कर said...

बेहतरीन ग़ज़ल .......दिल से मुबारकबाद|
"माफ़ी"--बहुत दिनों से आपकी पोस्ट न पढ पाने के लिए ...

समय चक्र said...

बेहतरीन ग़ज़ल ....शुभकामनायें

Unknown said...

cha gaye ho banarsi babu.ek se badh kar ek hai.
होती है क्या ज़िम्मेदारी
घर का बोझ उठा कर देखो

DR. ANWER JAMAL said...

मेरे मन-मंदिर में बसे हैं राम
वेद ओ कुरआन पर आकर देखो

मानव जाति का प्रारंभ भारत से हुआ है
क्योंकि स्वायमभू मनु का अवतरण भारत में हुआ था । यह अरबी इतिहास परंपरा से भी सिद्ध है । प्रमाण मेरे ब्लाग पर देखे जा सकते हैं ।

Deepak Saini said...

बेहतरीन गजल

Udan Tashtari said...

वाह, क्या बात है!!!

दिगम्बर नासवा said...

स्वर्ग-नर्क सब धरती पर है,
घर से बाहर आ कर देखो

विनोद जी .... किसी एक शेर को बयान करना आसान नहीं है आज ... बहुत मशक्कत करनी पढ़ रही है ... वाह ... कमाल के शेर निकाले हैं आज .. छोटी बहार में लिखना आसान नहीं होता ... पर आपकी मास्टरी होती जा रही है .... बहुत लाजवाब .

उपेन्द्र नाथ said...

हर नज्म बेहद सुन्दर और भावोँ से परिपूर्ण ।

Kailash Sharma said...

कितनी कीमत है रोटी की
निर्धन के घर जाकर देखो...

हरेक शेर लाजावाब..बहुत सुन्दर गज़ल..आभार

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहरी है सरकार हमारी,
चाहो तो चिल्ला कर देखो

होती है क्या ज़िम्मेदारी
घर का बोझ उठा कर देखो

कितनी कीमत है रोटी की
निर्धन के घर जाकर देखो

बहुत खूबसूरत गज़ल ..सटीक और सार्थक

वीरेंद्र सिंह said...

सरल शब्दों से युक्त छोटे-छोटे वाक्यों वाली आपकी सभी रचनाएँ मुझे तो बहुत अच्छी लगती।

विनोद जी आपकी ये रचना भी दिल में उतर गई।
आभार।

निर्मला कपिला said...

मन-मंदिर सब एक बराबर
दिल में राम बसा कर देखो

सुख-दुख जीवन के दो पहलूँ
ऐसा ध्येय बना कर देखो

स्वर्ग-नर्क सब धरती पर है,
घर से बाहर आ कर देखो\वाह विनोद बहुत कमाल के शेर हैं आज मैने भी इस मिसरे पर गज़ल लगाई है -- सोच के दीप जला कर देखो। बधाई इस लाजवाब गज़ल के लिये।

rajesh singh kshatri said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ...