राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी को सादर नमन करते हुए, प्रस्तुत करता हूँ आज के बदलते हालात पर चंद लाइनें
झूठ खरीदे जाते अब तो,हिंसा की होती जय कारी,
स्वार्थ,मोह,माया से दबकर, मानव शब्द विलुप्त हुआ,
दया किसी कोने में दुबका, तोड़ रही दम क्षमा बेचारी,
कितने बदल चुके है लोग,नर ही नर का दुश्मन है,
दूभर हुआ साँस तक लेना,ऐसी मची है, मारामारी,
पता चला दो दिल रखते थे, वे भी अपने सीने में,
छोड़ गये हमको दलदल में,कल तक बनते थे, हितकारी,
बैठे सोच रहे हैं चाचा, बेटे की शादी करनी है,
लालच की लपेट तो देखो,बाप बन गया है व्यापारी,
कहाँ गयी वो अदब हया,जब तक नही कमाते थे,
पूत के तेवर ऐसे बदले,शब्द बन गये छुरी-कटारी,
सोच रहे थे,इस अगहन में, कन्यादान करूँ बिटिया का,
कैसे बच पाते बाबू जी,अस्पताल जो था सरकारी,
दारू पी कर मस्त हुए है, कल्लू राम समोसे वाले,
अपना पॉकेट हरा भरा हो,भाड़ मे जाए दुनियादारी.
21 comments:
राष्ट्रपिताजी की जयंती पर एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करती और ए के 47 को ए के इक्यावन बनाती व्यंग्य से लबालब विनोदी कविता। जिसमें अनेक प्रसंगों के जरिए गुदगुदाया गया है।
विनोद जी आप ने तो गजब की रचना प्रस्तुत किया है आपको हमारी तरफ से शुभकामनाये
सोच रहे थे,इस अगहन में, कन्यादान करूँ बिटिया का, कैसे बच पाते बाबू जी,अस्पताल जो था सरकारी,
वर्तमान परिपेक्ष्य में आपने बहुत करारा और
सटीक व्यंग्य किया है।
बधाई!
विनोद जी बहुत ही करारी चोट करती हुई रचना लिख डाली आपने।
great your mission & hails to it
excellent poem bro..........
सत्य अहिंसा को पूजूँ या पूजूँ ए.के. सैतालीस को, झूठ खरीदे जाते अब तो,हिंसा की होती जय कारी,
wah ! is pehli line ne dill chhoo liya....
सोच रहे थे,इस अगहन में, कन्यादान करूँ बिटिया का, कैसे बच पाते बाबू जी,अस्पताल जो था सरकारी,
दारू पी कर मस्त हुए है, कल्लू राम समोसे वाले, अपना पॉकेट हरा भरा हो,भाड़ मे जाए दुनियादारी
bahut sateek vyang...... bilkul aisa hota hai.......
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deri ke liye maafi chahta hoon........ qki lucknow mein aaj khoob aandhi paani aaya ......... jisse ki 3 ghante power cut raha........
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सही सामयिक व्यंग्य!
Ye sab hamaree zimmedaaree...jo boyenge wo payenge...! Apne girebaan me jhanken to dekhte hain, shayad hamne kuchh sahee boya hee nahee...jo angrez bo gaye, useekee fasal kaat rahe hain!
बहुत सुंदर जी
Ispe comment diya to tha...rachna sundar hai isme shak nahee...shayad comment me apne mankee bhadaas utaar dee thee...kshama ko kshama karen!!
कितने बदल चुके है लोग नर ही नर का दुश्मन है
दूभर हुआ सांस तक लेना ऐसी मची है मारामारी !
बहुत सुन्दर,
sachchaai यही है aaj
सोच रहे थे,इस अगहन में, कन्यादान करूँ बिटिया का, कैसे बच पाते बाबू जी,अस्पताल जो था सरकारी ।
बहुत ही सत्य एवं सुन्दर प्रस्तुति के लिये आभार
अभी भारत को पूर्णत: विकसित होने में समय लगेगा तब शायद कुछ समस्याएं कम हो जाएं
आपकी कलम की धार दिन पर दिन पैनी होती जा रही है समाज मे व्याप्त समस्याउओं को बहुत अच्छी तरह उजागर कर रहे हैं । लाजवाब चोत है समाज पर शुभकामनायें
सत्य एवं सुन्दर प्रस्तुति...
LAJAWAAB LIKHA HAI VINOD JI ..... BAAPOO KO YAAD KARNE KA NIRLA ANDAAZ ..... EK SACH LIKHA HAI AAPNE ... BAHOOT BAHOOT SHUBHKAAMNAAYEN ....
सोच रहे थे,इस अगहन में, कन्यादान करूँ बिटिया का, कैसे बच पाते बाबू जी,अस्पताल जो था सरकारी,
sahi kaha aapne...aaj ki samsyao ka bahut sundar chitran...
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कविता बहुत सुन्दर है,
हार्दिक धन्यवाद.
समाज में व्याप्त कुरीतियाँ ही शायद संवेदनशील मन के संस्कारित विश्वास को तोड़ कर उसे अहिंसात्मक विचारधाराओं से ऐसे नक्सलाईट हिंसात्मक विचारधाराओं की ओरे बड़ी सहजता से खीँच ले जाती है.
गाँधी के युग में भी गरम और नरम दल जैसी दो विचार धाराएं थी., तब भी माहौल शायद कुछ ऐसा ही या इससे कुछ बेहतर रहा होगा. फिर भी गाँधी जी द्रढ़ता से जामे रहे अपने अहिंसात्मक विचारों के सत्य प्रयोग पर, बिना विचलित हुए, उन्हें घर के थके-हारे सदस्यों की बातें, मनोभावनाएं, विद्रोह, हालात कुछ भी न डिगा पाए, सब कुछ सहा पर सत्य का प्रयोग जारी ही रहा....,
और अंततः मकसद में कामयाब रहा, पर फिर से एक बार उनके अपने सगे से भी बढ़ कर नेताओं ने बड़ी चतुराई से एक किनारे बैठा दिया, वे पुनः सत्य का प्रयोग इनके विरुद्ध कर पाते दूसरी आज़ादी के लिए, उसके पहले ही उन्हें काल का ग्रास बना दिया गया..........
* आज कल दो दिल ही नहीं, "दो गले" (दोगले) भी हैं
* शराब के बुरे असर का विज्ञापन भी दिखाते हैं और धड़ल्ले से विकवाते भी हैं.
* बातें अहिंसा की, और कानून व्यवस्था के लिए आमजन पर लाठीचार्ज, गोलीबारी.
* देश अहिंसात्मक और रेवड़ियों की तरह बाँट रहे हैं हथियारों के लाइसेंस
और भी न जाने कितनी अनगिनत विसंगतियां....
एक झूठ को छिपाने के लिए एक नए कानून का हर बार सहारा....... या हर बार जाँच आयोग बिठा कर जिम्मेदारी से साफ बच निकलना.
ऐसे अधकचरे ज्ञान, इच्छाशक्ति से देश नहीं चला करते, विकृतियाँ सर चढ़ कर बोलने लगती है......
शायद मैं कुछ ज्यादा ही लिखता जा रहा हूँ, एक ब्लाग पोस्ट जैसा, सो विश्राम.
हार्दिक आभार, बापू को सादर नमन, उनके विचारों को नमन,
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
आधुनिक संदर्भों की सार्थक कविता।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
विनोद जी
सोच रहे थे,इस अगहन में, कन्यादान करूँ बिटिया का, कैसे बच पाते बाबू जी,अस्पताल जो था सरकारी,
भाई क्या खूब लिखा है आपने सीधी सरल भाषा में कोई कविता कितनी प्रभावशाली हो सकती है आपसे सीखे एक बार फिर भाई वाह
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