Saturday, May 1, 2010

अपने ही समाज के बीच से निकलती हुई दो-दो लाइनों की कुछ फुलझड़ियाँ-5-----(विनोद कुमार पांडेय)

ग्रह,नक्षत्र अनुकूल हो,मंदिर जाते रोज|
घर में माँ भूखी रहे,बाँट रहे वो भोज||

सब अपने में लीन है,अजब -गजब हालात|
ऐसे तैसे काटते,बाबू जी दिन रात||

बस रोटी दो जून की, हिस्से दादी के |
कंप्यूटर ने छीन ली,किस्से दादी के||

नाती पोते समझते,हैं उनको अब भार| |
अंधे दादा की छड़ी,का बोलो आभार||

भाई और बहन हुए,आज हृदय से दूर|
अंजाने रिश्तों की देखो,चर्चा है मशहूर||

बेदम छोटी बात में,सब इतने मगरूर|
एक जगह रहते मगर,दिल हैं कोसो दूर||

यह समाज का रूप है,बदल रहा संसार|
गैरों को अपना रहें,अपनो को दुत्कार||

ऐसे प्राणी का भला,कैसे होगा यार|
जो ये भी ना जानते,होता क्या परिवार||

27 comments:

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

बहुत बढ़िया, यही आज का सच है !

M VERMA said...

नाती पोते समझते,हैं उनको अब भार| |
अंधे दादा की छड़ी,का बोलो आभार||
बहुत सुन्दर विनोद जी
हर दर्द हमदर्द सा लगा

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

Bahut khoob vinod ji !

honesty project democracy said...

बदलते समाज की भयानक तस्वीर पेश करती और चिंतन को मजबूर करती कविता /

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

ग्रह,नक्षत्र अनुकूल हो,
मंदिर जाते रोज|
घर में माँ भूखी रहे,
बाँट रहे वो भोज||
सब अपने में लीन है,
अजब -गजब हालात|
ऐसे तैसे काटते,
बाबू जी दिन रात||

विनोद कुमार पाण्डेय जी!

श्रमिक दिवस पर बहुत ही
सटीक रचना लगाई है आपने!
मार्मिक कविता के लिए बधाई!

संगीता पुरी said...

आज की सच्‍चाई को बखूबी शब्‍दों में अभिव्‍यक्‍त किया है !!

girish pankaj said...

sundar dohe ban gaye, isame jeevan-bodh.
lagatar likhate raho, khul kar sadaa vinod..
badhai, achchhe bhavon ke liye.

राज भाटिय़ा said...

ऐसे प्राणी का भला,कैसे होगा यार|
जो ये भी ना जानते,होता क्या परिवार||
बहुत सुंदर जी, आप ने आज के उन बद दिमागो के बारे लिखा जो अपने आप को माड्रन समझते है.
धन्यवाद

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

सच उजागर करती.... शानदार दो लाइना.....

अविनाश वाचस्पति said...

श्रम दिवस पर बेहद श्रम (मानसिक) से बुनी गई रचना।

योगेन्द्र मौदगिल said...

वाह सुंदर भावाभिव्यक्ति साधुवाद....

श्यामल सुमन said...

बहुत भावपूर्ण रचना। आज की हालात पर एकदम सटीक।

विनोद जी - तीसरे दोहे में मेरे हिसाब से दोहा का नियम भंग हो रहा है। क्या इसे आप ऐसे लिख सकते हैं-

रोटी दादी को मिले कुछ अचार, नमकीन।
दादी के किस्से लिए कम्प्यूटर ने छीन।।

चौथे दोहे में "समझते" की जगह "सोचते" देने से कैसा रहेगा?

पाँचवे दोहे में - "भाई और बहन हुए" की जगह "भाई बहन भी हो गए" - कैसा रहेगा?

मैं अपने को रोक न सका। कुछ सलाह दे दिया। मानना या न मानना पूर्णतया आपके ऊपर है। जरूरी नहीं कि जो मैंने कहा वही सही - आप अपने ढ़ंग से भी बदलाव कर सकते हैं। उम्मीद है अन्यथा नहीं लेंगे।

शुभकामनाओं सहित-

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

vandana gupta said...

sach ko ujaagar kar diya.

डॉ टी एस दराल said...

बहुत खूब । रिश्तों पर एक बेहतरीन रचना ।
काश कि लोग समझ सकें इन रिश्तों की अहमियत को ।

वाणी गीत said...

ऐसे प्राणी का क्या भला होगा जो नहीं जानता परिवार ...
अच्छी रचना ...

Satish Saxena said...

विनोद भाई ,
संवेदनशील रचना के लिए आभार ! दुःख है कि इस कष्ट को समझाने की कोशिश ही नहीं की जाती ...

kshama said...

Kitna sach hai...aaj dada-dadi,nana-nani sab apne bachhon, nati poton ke sahwas ke liye taras gaye hain..akele pad gayye hain..

अनामिका की सदायें ...... said...

waah sach ki aankh kholti ye rachna sach me kaabile tareef hai...koi samjh sake to samjhe...koi sambhal sake to sambhle.

badhayi.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

कटु सत्य को सहज रूप से लिखा है....बहुत बढ़िया ये सारे ही दोहे

kshama said...

Ek baar phir padhi yah rachana...aah! Kaash yah sach na hota!

hem pandey said...

आज के समाज की पोल खोलती रचना.

Dr.R.Ramkumar said...

बस रोटी दो जून की, हिस्से दादी के |कंप्यूटर ने छीन ली,किस्से दादी के||
बेदम छोटी बात में,सब इतने मगरूर|एक जगह रहते मगर,दिल हैं कोसो दूर||
Behad sachche dohe. Yatharthvadi--

Smart Indian said...

बहुत बढ़िया. ये तो आधुनिक जीवन का ओपरेशन मनुअल ही हो गया.

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

विनोद भाई, सचमुच आइना दिखाती दोहे हैं.
कमाल का लिखा है, सब के सब लाइने!!

ऐसे प्राणी का भला,कैसे होगा यार|
जो ये भी ना जानते,होता क्या परिवार||
... बहुत सुन्दर!

दिगम्बर नासवा said...

सब अपने में लीन है,अजब -गजब हालात|
ऐसे तैसे काटते,बाबू जी दिन रात
बहुत ही मार्मिक वर्णन ....
नाती पोते समझते,हैं उनको अब भार| |
अंधे दादा की छड़ी,का बोलो आभार
वाह क्या खूब लिखा है ... आज के दौर के लिए ही शायद किसी ने लाठी बनाई होगी तो जीवन का सहारा है ...
ऐसे प्राणी का भला,कैसे होगा यार|
जो ये भी ना जानते,होता क्या परिवार
परिवार की अहमियत को जो नही जानता सच में उसका तो भगवान ही राखा है ...

बहुत हो अच्छे छन्द है विनोद जी .... समाज का आईना ....

देवेन्द्र पाण्डेय said...

सब अपने में लीन है,अजब -गजब हालात|
ऐसे तैसे काटते,बाबू जी दिन रात
...वाह!

Kulwant Happy said...

दूध सा सफेद सच लिख दिया आपने तो।