Saturday, October 31, 2009

कभी नौबत नही आयी

गम यूँ मिला की वो,आँसुओं में डूब गया,
किसी मैखत में जाने की,कभी नौबत नही आयी.

अपनों ने ही सीखा दिए उसे,जमाने के उसूल,
गैरों को आज़माने की, कभी नौबत नही आयी.

कई सपने संवर कर टूट जाते, रात भर में अब,
सुबह के गुनगुनाने की, कभी नौबत नही आयी.

बाप बनकर जिसे सदा दी,जिंदगी के हर मोड़ पर,
उसे हक़ भी जताने की,कभी नौबत नही आयी.

जीवन पथ पर चलता रहा, कंधे पर बोझ लिए,
चहक कर मुस्कुराने की,कभी नौबत नही आयी.

घर की आँगन में ही दीवार, उठा लिए उसके अपने,
हसरते आशियाने की, कभी नौबत नही आयी.

बुढ़ापे में खुदा से जो मिला,यह तोहफा उसको,
जिसे जग से छुपाने की,कभी नौबत नही आयी.

पड़ोसी भी नुमाइस देखकर, हँस कर निकल जाते,
किसी से गम बताने की,कभी नौबत नही आयी.

Wednesday, October 28, 2009

कुछ तो करो

भीड़ में क्यों तनहाँ हो तुम,
तनहाई के लिए कुछ करो,

हमसाया भी जान छुड़ाती,
परछाईं के लिए कुछ करो,

हे आलस के धारक मानव,
जमहाई के लिए कुछ करो,

क्या खोया क्या पाया छोड़ो,
भरपायी के लिए कुछ करो,

जग क्यों रुसवा है,इंसान से,
रुसवाई के लिए कुछ करो,

जनता के सुख चैन नदारद,
महंगाई के लिए कुछ करो,

कब तक सितम सहोगे यूँ,
हरज़ाई के लिए कुछ करो,

देर हो रही है, बाबू जी,
शहनाई के लिए कुछ करो,

Tuesday, October 20, 2009

बेटे की शादी में अनोखे लाल जी का हंगामा


आज प्रस्तुत करता हूँ,हिन्दी की एक विशुद्ध हास्य कविता जो अभी कुछ दिन पहले लिखी थी थोड़ी व्यस्तता के वजह से कुछ नया नही ला पाया परंतु उम्मीद करता हूँ की यह प्रस्तुति भी आपके मनोरंजन में कोई कसर नही छोड़ेगी..


बदली बदली सूरत थी ,बदली बदली चाल,
बेटे की शादी करने, जब चले अनोखे लाल.

रंगदार कुर्ता बनवाएँ, चूड़ीदार पाजामा,
बाँधे घड़ी टाइटन की, जो दिए थे बंशी मामा,
फुल पॉलिश से चमक रहा , पैरों में काला जूता,
पगड़ी सर पर शोभे, जैसे पंचायत के नेता,

दाढ़ी-मूँछ सफाचट करके, रंग डाले कुल बाल,
बेटे की शादी करने, जब चले अनोखे लाल.


एक मारुति मँगवाए थे, अपने लिए अकेले,
बगल गाँव से बुलवाए थे,तीन लफंगे चेले,
बात बात जयकारी, सब पट्ठो से लगवाते थे,
बीड़ी जला ले,वाला गाना, बार बार बजवाते थे,



ठुमका लगा-लगा कर अपना, हाल किए बेहाल,
बेटे की शादी करने, जब चले अनोखे लाल.


समधी के घर दरवाजे पर, धमा-चौकड़ी खूब मचाए,
जम कर के जलपान किए,फिर पान भाँग के खाए,
लगे झूमने फिर आँगन में, देख घराती थे हैरान,
ज़ोर ज़ोर से बोल रहे थे, मुँह में लेकर मगहि पान,


थूक दिए समधिन के उपर, जम के मचा बवाल,
बेटे की शादी करने, जब चले अनोखे लाल.
समधिन ने दो दिए जमा के, गाल हो गये लाल
बेटे की शादी करने, जब चले अनोखे लाल.

Friday, October 16, 2009

१६ अक्तूबर को प्रतिष्टित समाचार पत्र हरिभूमि के दिल्ली संस्करण में प्रकाशित व्यंग "चाँद पानी पानी क्यों हुआ?"


समस्त ब्लॉगर्स,कवियों और कहानीकारों को दीवाली की हार्दिक शुभकामनाएँ.. दीवाली के शुभ अवसर पर आज हरिभूमि के दिल्ली संस्करण में मेरा लिखा व्यंग" चाँद पानी पानी क्यों हुआ?" प्रकाशित हुआ है..आप सब देखें और और अपना बहुमूल्य आशीर्वाद दें. इस उपलब्धि के लिए मैं आप सभी का बहुत बहुत आभारी हूँ जिनके आशीर्वाद और टिप्पणियों ने मुझे आत्मविश्वास दिया और मैं निरंतर लिखता गया. साथ ही साथ मैं अविनाश वाचस्पति जी का विशेष रूप से आभार व्यक्त करना चाहूँगा जिन्होने इस हास्य कवि को अपने मार्गदर्शन से एक व्यंगकार बना दिया..


चित्र के उपर क्लिक करें और व्यंग का आनंद उठाएँ.

Thursday, October 15, 2009

वो भी एक दीवाली थी,ये भी एक दीवाली है

आप सभी को दीवाली की हार्दिक शुभकामनाएँ..प्रस्तुत है एक हल्की फुल्की रचना और आप सब के आशीर्वाद का आपेक्षी हूँ.

वो भी एक दीवाली थी,ये भी एक दीवाली है.

हर्षित मन था, हृदय प्रफुल्लित,
भर उमंग से यह तन संचित,
छत,आँगन व घर के द्वारे,
उछल,कूद करते थे प्यारे,
धर कर हाथों में ज्‍वाला,
हमने बचपन खूब गुज़ारा,
रंग दीवाली जब चढ़ता था,
बचपन चंचलता गढ़ता था,
अद्भुत लगता था, संसार,
आज वही मध्यम त्योहार,
लालच,स्वार्थ भुला कर सब,
निच्‍छल प्रेम घुला कर तब,

जो पैमाना छलकाते थे,अब वो पैमाना खाली है.

सुबह-शाम उल्लास भरा,
हर चेहरा निखरा-निखरा,
लिए पटाखे फुलझड़ियाँ,
सजाते थे, दीपक की लड़ियाँ,
हर पंक्ति जगमगा रही थी,
एक शरारत जगा रही थी,
गगन में फुलझड़ियाँ लहराते,
हाथ में लेकर बम बजाते,
खूब पटाखे तब छोड़े थे,
नये नये बंधन जोड़े थे,
बचपन-बचपन मिल उठता था,
पुष्प प्रेम का, खिल उठता था,

जो बगिया गुलजार कभी थी, आज वहीं सूखी डाली है.

धीरे धीरे उम्र बढ़ी,
भौतिक सुख की लगी हथकड़ी,
पेट की ज़िम्मेदारी आई,
उपर से छाई मँहगाई.
साथ साथ कलयुग की माया,
स्वार्थ ने सबको यूँ भरमाया,
निज विकास का जादू डोला,
एकाकीपन चढ़ कर बोला,
भूल गये बचपन की मस्ती,
बुला रही अब भी जो बस्ती,
बदल गये सारे वो पलछिन,
हुई दीवाली भी बस एक दिन,
याद है क्यों बस अपना घर,
वो उल्लास गये हैं क्यों मर,

बार बार यह प्रश्न उठे, और मन मेरा सवाली है.
वो भी एक दीवाली थी,ये भी एक दीवाली है.


Monday, October 12, 2009

एक बंदूक दिला दो पापा,बहुत सह चुका अत्याचार

लगातार कई गंभीर कविताओं के बाद आज हम अपनी टूटी फूटी हिन्दी में एक हास्य कविता प्रस्तुत कर रहे हैं, आप सब के आशीर्वाद का इंतज़ार रहेगा जिसके सहारे अभी तक लिखता रहा हूँ.

एक बंदूक दिला दो पापा,बहुत सह चुका अत्याचार,


हैं दिमाग़ के हल्के टीचर, हमको बहुत सताते हैं,

बात बात पर कान पकड़ते, मुर्गा भी बनवाते हैं,

क्लास में रेप्युटेशन की तो,उसने ऐसी तैसी कर दी,

जैसे-तैसे काट रहा था, इज़्ज़त दो पैसे की कर दी,


अब स्कूल तभी जाऊँगा, जब दिलवाओगे हथियार,


टीचर तो टीचर है पापा,बच्चे भी हड़काते हैं,

बिना बात,कमजोर समझ कर,हरदम लड़जाते हैं,

कुर्सी,मेज तोड़ देते हैं,नाम हमारा लग जाता है,

अलग बुला कर प्रेसीडेंट,भी हमको धमकाता है,


पहले उसको ही मारूँगा,बहुत बन रहा है दमदार,


अकल गयी है,घास चरन को,कौन इन्हे समझाएगा,

छूट गये हो जेल से अब तुम, इनको कौन बताएगा,

मम्मी नही चाहती की तुम, फिर से जेल दुबारा जाओ,

रफ़ा,दफ़ा मैं सब कर दूँगा, एक हथियार मुझे दिलवाओ,


इतना लतियाऊंगा सबको,पकड़ेंगे सब चरण हमार,


एक एक को चुन चुन करके,मैं गोली से मारूँगा,

गुंडा बाप का बेटा हूँ,ऐसे ना हिम्मत हारूँगा,

डरते थे सब पहले जितना,फिर से उन्हे डराऊँगा,

आप की पीढ़ी का चिराग हूँ,पूर्वज धर्म निभाऊँगा,


मेरी जमानत करवाने को,बस तुम हो जाओ तैयार,

एक बंदूक दिला दो पापा,बहुत सह चुका अत्याचार,