Wednesday, June 22, 2011

गर्मियों की ये दुपहरी---(विनोद कुमार पांडेय)

आज प्रस्तुत है एक पुरानी ग़ज़ल जो गर्मी के तरही मुशायरे के लिए लिखी थी

आ गई है ग्रीष्म ऋतु तपने लगी फिर से है धरती
और सन्नाटें में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी

आग धरती पर उबलने,को हुआ तैयार सूरज
गर्म मौसम ने सुनाई, जिंदगी की जब कहानी

चाँद भी छिपने लगा है,देर तक आकाश में
रात की छोटी उमर से, है उदासी रातरानी

नहर-नदियों ने बुझाई प्यास खुद के नीर से जब
नभचरों के नैन में दिखने लगी है बेबसी सी

तन पसीने से लबालब,हैं मगर मजबूर सारे,
पेट की है बात साहिब कर रहे जो नौकरी जी

देश की हालत सुधर पाएगी कैसे सोचते हैं.
ये भी है तरकीब अच्छी, गर्मियों को झेलने की