Sunday, June 27, 2010

बादल जी के नाम एक खुला पत्र-----(विनोद कुमार पांडेय)

अभी सुबह ५ मिनट की बूंदा-बंदी के बाद शांत पड़े बादल जी के नाम एक पत्र है काव्य रस से ओत प्रोत शायद सभी को पसंद आए..


लो फिर टिपटिपा के चले गये|

खुशी हुई तुम आए थे,
थोड़ी देर ठहरते तो,
ऐसी भी क्या हुई बेरूख़ी,
थोड़ी देर बरसते तो,

मौसम खूब बनाए थे,पर बस भरमा के चले गये|

आँधी के झोंकों ने तेरे,
स्वागत में संगीत बजाई,
बिजली रानी तड़प-तड़प के,
अपने मन की व्यथा सुनाई,

सारी बातें अनदेखी कर,कान दबा के चले गये|

गर्मी के गर्म थपेड़ों से,
धरती भी हलकान पड़ी,
हाथ उठा कर तुमको पीने,
सारी दुनिया हुई खड़ी,

वो सब प्यासे आस लगाए,तुम तड़पा के चले गये|

चलो ठीक है अबकी जाओ,
पर जल्दी दोबारा आना,
दिन-दिन गर्मी बढ़ती जाती,
थोड़ी शीतलता पहुँचना,

मैं विनती करता हर बार,तुम बहका के चले गये|

Sunday, June 20, 2010

जींस तेरे कितने रूप (हास्य-व्यंग)--------(विनोद कुमार पांडेय)

जींस आधुनिक विश्व का एक प्रचलित पहनावा परिचय का मोहताज नही है,फिर भी मैने कहा चलो कुछ चर्चा हो ही जाए आख़िर खाली टाइम का सदुपयोग करें तो कैसे,वैसे भी दोस्तों मैं भी तो उसी भारत का हिस्सा हूँ जहाँ फालतू की चर्चा किए बिना ज़्यादातर लोगों का दिन ही नही कटता और दिन भर रुक भी गये तो शाम होते होते कोई ना कोई ऐसी सुर्रा छोड़ ही देते है जिससे महफ़िल में गर्माहट बनी रहें. खैर छोड़िए इन बातों को हम जींस की बात कर रहे थे, भारत के इतिहास में जींस का इतिहास तो ज़्यादा पुराना नही है फिर भी काफ़ी कम समय में जींस ने एक अच्छा जन-संपर्क बना लिया मुंबई हो या दिल्ली,कोलकाता हो या बैंगलोर हर जगह जींस का एक खास वर्गसमूह हैं..बस चेन्नई को छोड़कर क्योंकि चेन्नई वालों को अभी तक चेन नही हो जैसे कपड़ो में ही आनंद आता है जिसमें आज भी लूँगी का सर्वोच्च स्थान बरकरार है.

पैंट,पतलून,पाजामा कई विविध प्रकार के परिधान तरह तरह के चित्रकारिताओं से सज कर बाजार में आते रहें पर जींस की लोकप्रियता जस की तस रही,जींस की सबसे खास बात तो यह रही की जींस के साथ आप शर्ट, कुर्ता,टी.शर्ट, कुछ भी पहन लें सब में फिट, अरे पहनने की छोड़िए अगर ना पहने तो भी हिट.लोग यहीं समझेंगे किसी बड़े घर से ताल्लुक़ात है या किसी स्टार-वस्टार का रिश्तेदार हैं जो अभी नया नया मोहल्ले में आया है.

जींस के मार्केट में टिके रहने का एक कारण यह भी है कि इसके रंग-रूप में किसी भी प्रकार का परिवर्तन अशोभनीय नही होता है..पहली बात यह कि जींस को २ महीने तक ना धुलों फिर भी बेचारा कुछ नही बोलेगा और ईमानदारी से आपके शरीर से चिपका रहेगा भले उसकी सड़ी टमाटर सी हल्की हल्की दुर्गंध पास वाले आदमी के नाक में दम कर दें और दूसरी बात यह जब तक सलामत है तब तक तो ठीक-ठीक अगर फट जाए तो कहनें ही क्या,आज कल तो फटे जींस का कारोबार और भी बढ़िया चल रहा है.

वैसे तो जींस की महिमा बहुत बड़ी है पर शॉर्ट में ही निपटाना चाहूँगा,जींस पहनने के एक फ़ायदे जेब के भी है एक साधारण से साधारण जींस में कम से कम ५-६ जेबें होती है, थोड़ा और फैशन में चले गये तो जेबें की संख्या भी १० से उपर चली जाती है मतलब आदमी एक चलता फिरता ए. टी. एम. मशीन बन जाता है चाहे तो २-४ लाख यूँ ही लेकर टहलता रहे किसी को कानों कान तक खबर नही लगने वाली..

ये रहें कुछ विशेष गुण जिसके बदौलत जिस के कारण जींस भारत में भी बहुत ही लोकप्रिय हो गया है,वैसे भी भारत का विदेशी वस्तुओं से बहुत ज़्यादा ही प्यार रहा है और उनके लिए भारत एक बढ़िया बाजार रहा है.

Wednesday, June 9, 2010

चोरबजारी,इतना ज़्यादा,मारामारी,इतना ज़्यादा-----(विनोद कुमार पांडेय)

चोरबजारी,इतनी ज़्यादा
मारामारी,इतनी ज़्यादा

उन्नत देश हो रहा यारो
पर बेकारी,इतनी ज़्यादा

मँहगाई बढ़-चढ़ कर बोले
मालगुजारी,इतनी ज़्यादा

निर्धन की नैनों में देखो
है लाचारी,इतनी ज़्यादा

चारो तरफ फँसी हैं पब्लिक
हाहाकारी,इतनी ज़्यादा

सत्ता-कुर्सी लोभी नेता
में मक्कारी इतनी ज़्यादा

इंसानों की इंसानों पर
पहरेदारी,इतनी ज़्यादा

धार हुई तलवार की फीकी
शब्द-दुधारी,इतनी ज़्यादा

उठती अंगुली सच्चाई पर,
दुनियादारी,इतनी ज़्यादा

उन पे बोझ बढ़े तो अच्छा
अपनी बारी,इतनी ज़्यादा

Saturday, June 5, 2010

अपने ही समाज के बीच से निकलती हुई दो-दो लाइनों की कुछ फुलझड़ियाँ-6-----(विनोद कुमार पांडेय)

कहूँ बड़ों को क्यों भला,छोटे भी है तेज|

संस्कार से वो सभी,हैं करते परहेज||


बाबू माँ की बात का,तनिक नही सम्मान|

उल्टे कामों में सदा,रहता उनका ध्यान||


लाल कलर टी- शर्ट पर,काला-नीला शूज|

जींस छोड़ कर देह पर,बाकी सब कुछ लूज|


गाँव-मोहल्ला तंग है,ऐसे सुंदर काम|

गाली,मार-पिटाई में,फेमस इनका नाम||


पॉकेट में धेला नहीं,फिर भी सीना तान|

गलियों में हैं घूमते,वो बन कर सलमान||


अपने कक्षा चार में,छोटा पहुँचा सात|

घर में होती बाप से,डेली जूता लात||


घर-बाहर दोनो जगह,हैं भीषण बदनाम|

बड़े आदमी की तरह,फिर भी इनके काम|


महँगी मोबाइल रखें,बाइक रखें बजाज|

घर का मालिक राम जी,इन्हे नही कुछ लाज||


अपनी खुद चिंता नहीं,हैं ये ऐसे वीर|

कैसे इनको हम कहें,भारत की तस्वीर||




Tuesday, June 1, 2010

फेंको अपनी झोला-झंडी,हो जाओ बिंदास रे जोगी-----(विनोद कुमार पांडेय)

अभी कुछ दिन पहले आज की ग़ज़ल पर एक संपन्न तरही मुशायरा में प्रस्तुत मेरी एक ग़ज़ल जिसमें मैं कुछ लाइन और जोड़ कर आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ..

बैठ मेरे तू पास रे जोगी,
बात कहूँ कुछ खास रे जोगी

गेरुआ कपड़ा,चंदन,टीका,
सब कुछ है,बकवास रे जोगी

तुझे पता है,सच्चाई कि,
हर दिल रब का वास रे जोगी

फिर क्यों ऐसा वेश बनाया,
किसकी तुम्हे तलाश रे जोगी

कौन सुनेगा तेरी टेरी,
सब हैं जिंदा लाश रे रोगी

रंग बदलते इंसानों का,
नही रहा विश्वास रे जोगी

अपनों ने ही गर्दन काटी,
देख ज़रा इतिहास रे जोगी

आज ग़रीबी के आगे तो,
मंद पड़े उल्लास रे जोगी

बाँटे दर्द दूसरों का यह,
कौन करें अभ्यास रे जोगी

देख तमाशा इस दुनिया का,
होना नही उदास रे जोगी

मरहम पास हमेशा रखो,
छोड़ो अब सन्यास रे जोगी

फेंको अपनी झोला-झंडी,
हो जाओ बिंदास रे जोगी.