व्यस्तता के दौर से कुछ पल निकाल कर आप लोगों को हंसाने के लिए फिर से आ गया..प्रस्तुत कविता डेढ़ साल पहले की है जिसे मेरी पहली विशुद्ध हास्य कविता का दर्जा भी मिला है...कविता एक संस्मरण को समेटे हुई है जो निश्चित रूप से आप सबका मनोरंजन करेगी...कविता का आनंद लीजिए और आशीर्वाद दीजिए..धन्यवाद
अब की होली पे घर जाने का प्लान बनाया,
ये बात पहले समझ में नही आई थी,
इसलिए रिज़र्वेशन भी नही कराई थी,
ऑफीस से छूटते ही घर जाने को बेकरार हो गया,
अनुराग को साथ लिया और तैयार हो गया,
रिज़र्वेशन था नही यात्रा में परेशानी थी,
क्योंकि हम लोगो ने जनरल में जाने की ठानी थी,
मेरा भी घर जाने का ख्याल मरने लगा,
फिर भी हमने साहस को जगाया,
और हिम्मत करके प्लेटफार्म नंबर-११ पे आया,
भारी भीड़ थी होली का सीजन था,
कॉलेजों की सामूहिक छुट्टी भी इसका एक रीजन था,
कुंभमेले में बसंत पंचमी का दिन लग रहा था,
और कोलकाता से चिड़ियाघर का सीन लग रहा था,
बच्चे-बड़ों और बूढ़ों के चिल्लाने की आवाज़ आ रही थी,
आदमी की भीड़ आदमी को ही दबा रही थी,
प्लेटफार्म का दृश तो देख कर डरने लगा,
वापस लौट जाने का मन करने लगा,
तभी ट्रेन के सीटी की आवाज़ कान में आई,
तो हमने कदम और तेज बढ़ाई,
मेरे साथ अनुराग ने भी हिम्मत जुटाया था,
अटैची सिर पर बैग बगल में चिपकाया था,
भागते-भागते हम पहुँचे प्लेटफार्म के किनारे,
बिना कुछ किए बस धक्कों के सहारे,
लोग ट्रेन की ओर बढ़ने लगे
सीट पाने के लिए लड़ने-झगड़ने लगे
न जानते हुए भी एक दूसरे से बकवास करने लगे,
हर आज़माईस में ट्रेन में चढ़ने का प्रयास करने लगे,
कुछ चढ़ने और कुछ चढ़ाने में परेशान थे,
उनकी तो हालत ही खराब थी जिनके पास समान थे,
धीरे-धीरे ट्रेन स्टेशन से चलने लगी,
जनरल बोगी कैपेसिटी से आगे बढ़ने लगी,
फिर भी लोग दौड़ कर आने जाने लगे,
बोरिया-बिस्तर लेकर भागमभाग मचाने लगे,
समान वाले चाचा जी समान ही रखते रहे,
सीट मिल ही नही पाई,
वहीं फर्श पे ही बैठ गये लेकर अपनी लुगाई,
भागमभाग में सामान भी छूटने लगे,
सीसे के कुछ आइटम धक्के से टूटने लगे,
पंडित जी की रेडियो, वी. सी. आर. और टी. वी. भी छूट गई,
एक नौजवान की ती बीवी ही छूट गई,
हम और अनुराग धक्के में घुसे पर बैठने नही पाए,
थोड़ी जगह पाकर वही पे पैर फैलाए,
कुछ देर बाद मेरी साँसे उपर नीचे होने लगी,
मेरे पैर पर अटैची रख कर एक दादी जी सोने लगी,
उनको जगाकर अटैची को उपर लटकाया,
तब जाके चैन की सांस ले पाया,
अनुराग भी ग़लती का एहसास कर रहा था मेरे साथ आकर,
इस जनरल बोगी के सफ़र में बैग-अटैची साथ मे लाकर,
गर्मी इतनी की उसका सर चकरा रहा था,
उपर टंगा बैग उसके सर से टकरा रहा था,
अटैची रख कर किसी तरह पैर समेटा था,
और अटैची पर एक छोटा बच्चा लेता था,
बच्चे की मम्मी बाथरूम के गेट पर घोड़े बेच कर सो रही थी,
और बाथरूम आने जाने वालों को जबरदस्त परेशानी हो रही थी,
एक सीट पे आठ-आठ लोग पड़ रहे थे,
उस पर भी कुछ बैठने की जुगाड़ में लड़रहे थे,
एक भाभी जी पर्श छुपा रही थी,चोरी से घबरा कर,
भैया जी तिलमिला उठे पसीने से नहाकर,
पसीने उनका नही उपर बैठे दादा जी से आ रहा था,
बगल में बैठा बच्चा न जाने क्यों शरमा रहा था,
शायद पसीने के साथ कुछ और नीचे आ रहा था,
और बच्चा अपनी इस ग़लती को पसीने से छुपा रहा था,
हमलोग भी पैरो को मोडते-फैलाते सोते जागते रहते,
बाहर के मौसम को टुकूर-टुकूर ताकते रहते,
बाहर का मौसम अंदर से काफ़ी सुखद था,
राहत दे रहा थी, अंदर का हाल मन को सिर्फ़ घबराहट दे रहा .
ट्रेन की जनरल दुर्दशा देख कर सहम गया,
सोचा कभी ऐसे यात्रा नही करूँगा,
जहाँ पर जैसे भी हूँ पड़ा रहूँगा,
पर क्यों ऐसे जाना पसंद करते है,
पसंद करते है या उनकी मजबूरियाँ है,
या उनके अपने लोगों से जो दूरियाँ है,
उसी दूरी को मिटाने के लिए इतना दर्द सहते है,
यह उनके प्यार को दर्शाता है,
की आदमी परेशान तो होता है,
पर जनरल यात्रा करने से नही घबराता है.