Thursday, May 27, 2010

इम्तिहान ज्यों ख़तम हुआ,कल्लू नें बाँधी आस----(विनोद कुमार पांडेय)

इम्तिहान ज्यों ख़तम हुआ,कल्लू नें बाँधी आस,
हे भगवान चढ़ाइब लड्डू,बस करवा द पास,


बारहवीं के इम्तिहान का,टेंसन बहुत लिया,
गुलछर्रों के साथ साथ में,मेहनत खूब किया,
नकल कराने को चाचा ने पूरा ज़ोर लगाया,
पर किस्मत का मारा बुद्धू,वो भी ना कर पाया,

टीचर से लेकर चाचा तक,सब ने किया प्रयास,
हे भगवान चढ़ाइब लड्डू,बस करवा द पास,


पहले पेपर में ही उसकी,हालत हुई खराब,
हिलते-डुलते घर पहुँचा था,जैसे पिए शराब,
घरवाले डंडा ले दौड़े,मत पूछो क्या हुआ,
पापा बोले नालायक,मम्मी बोली कलमुंहा,

कहीं लटक ना जाए कल्लू ,होता यूँ आभास,
हे भगवान चढ़ाइब लड्डू,बस करवा द पास,


पढ़ना-लिखना एक नही था,दिन भर खेले गेम
किसी तरह कॉपी भरना,ही बस था उसका येम,
आगे के सारे पेपर भी,राम भरोसे हो पाए,
अब आगे ही पता चलेगा,कितना लिख कर के आए,


नंबर सोच-सोच कर कल्लू,होता बहुत उदास,
हे भगवान चढ़ाइब लड्डू,बस करवा द पास,


पास अगर हो जाते है तो,बाबू देंगे घड़ी,
फेल अगर जो हुए तो समझो,जम जाएगी छड़ी,
खर्चा-पानी बंद रहेगा,अगले साल परीक्षा तक,
चाहे जितना करे पढ़ाई,नही मिलेगी भीक्षा तक,


ठान चुका है रहने को, वो हर मंगल उपवास,
हे भगवान चढ़ाइब लड्डू,बस करवा द पास,


Sunday, May 23, 2010

राष्ट्रीय कहिए या अंतरराष्ट्रीय पर एक हिट दिल्ली ब्लॉगर्स सम्मेलन की रिपोर्टिंग का काव्य रूपांतरण पढ़िए...मेरे अपने अंदाज में----(विनोद कुमार पांडेय)

एक बार फिर ब्लॉगर्स ने इतिहास रच डाला,
२३ मई२०१०,स्थान था नांगलोई,छोटूराम धर्मशाला,
छोटू था धर्मशाला,पर बड़े बड़े लोग आए थे,
आकर महफ़िल को खुशमिजाज बनाएँ थे,


संगीता पूरी जी,और ललित शर्मा जी बड़े दूर से आएँ थे,
शेष मनुष्य यही दिल्ली के मैदानी इलाक़ों से आकर छाए थे,
उनमें रतन शेखावत जी ज्ञान दर्पण वाले सबसे पहले हाथ मिलाए थे,
ब्लॉग पर पगड़ी में फोटो देखा था तो हम समझ नही पाए थे,


पर धीरे धीरे वार्तालाप आगे बढ़ी,तो बहुत अच्छा लगा,
जय कुमार झा जी का भी संदेश बहुत सच्चा लगा,
राजीव तनेजा जी का कितना आभार करूँ सपरिवार स्वागत में पड़े थे,,
हमारे बनारसी चाचा वर्मा जी भी मुस्कुराहट लिए खड़े थे,


वर्मा जी के स्कूटर का भी किसी ब्लॉगर साथी ने मान रख दिया था,
खुद खाने के बाद स्कूटर पर भी एक पैकेट जलपान रख दिया था,
नुक्कड़ के अविनाश जी,चौखट के पवन जी के साथ ही प्रवेश किए,
बागी काका जी,खुशदीप जी और इरफ़ान जी भी दरस दिए,


मयंक जी से पहली बार मिला,आधे बनारसी के रूप में फिट थे,
राजीव रंजन,अभिषेक सागर,अजय यादव जी,
भी अपने-अपने रोल में हिट थे,
नीरज जी,मवाक जी, और अंतरसोहिल जी भी रंग भर रहे थे,
शाहनवाज़ जी भी प्रेम रस की बारिश कर रहे थे,


कुछ लोग ऐसे भी थे जो पहली बार ब्लॉगर्स सम्मेलन में सम्मुख थे,
उमाशंकर मिश्र जी,योगेश गुलाटी जी और सुलभ जी उनमें प्रमुख थे,
मीडिया डॉक्टर जी का भी विचार बहुत महत्वपूर्ण लगा,
घनश्याम जी,चंडीदत्त शुक्ल जी,प्रतिभा जी,
और संजू तनेजा जी से समारोह पूर्ण लगा,


प्रवीण पथिक जी,सुधीर कुमार जी और देवेन्द्र जी भी महफ़िल में जमें थे,
राम बाबू जी,आशुतोष जी,,अमर ज्योति जी भी सम्मेलन में रमें थे,
पी. के. शर्मा जी, डॉ. वेद जी की उपस्थिति भी एक संदेश दे रही थी,
ब्लॉगर्स और हिन्दी के भविष्य सफलता की कहानी कह रही थी,


अजय झा भैया थोड़ी देर में पहुँच पाए थे,
पर विचार गोष्ठी से पहले ही आए थे,
बाकी भी बड़े-बड़े लोग थे फोटो से स्पष्ट हैं,
नाम नही याद आ पाने का हमें बहुत कष्ट है,


सबकी गरिमामयी उपस्थिति के बाद प्रारम्भ हुई,
कोल्ड,ड्रिंग और बिस्किट का दौर भी खूब आरंभ हुई,
पहले की तरह राजीव जी और मानिक जी,
पूरे दिल से स्वागत में लगे थे,
इन्हे लाल टी. शर्ट में देख कर शायद ज़लज़ला जी भी भगे थे,


ब्लॉग भविष्य के बारे में व्यापक विचार किया गया,
विवादास्पत लोगों को नज़रअंदाज करने का फ़ैसला लिया गया,
बीच में समोसे,पकौड़े,रसगुल्ले,बरफी भी मंगाए गये थे,
गोष्ठी बीच में रोक कर उन्हे भी निपटाए गये थे,


अविनाश जी गोष्ठी अध्यक्षता के पूरे रंग में थे,
बाकी सब ब्लॉगर्स भी अपने तरंग में थे,
ब्लॉगर्स एकता और हिन्दी विकास के लिए चर्चा हुई,
सार्थक लेखनी और आपसी सहयोग पर भी कुछ समय खर्चा हुई,


कुल मिलाकर यह,अब तक का सबसे सफल सम्मेलन था ,
हमें बीच में ही जाना पड़ा जबकि रुकने का बहुत मन था,
कुछ अत्यन्त ज़रूरी काम ने मजबूर किया था,
समारोह के अंतिम क्षणों में मुझे सबसे दूर किया था,


बस मेरी यही दुआ है,ऐसे ही यह प्रेम परस्पर रंग लाती रहे,
और ग़लत इरादे,ग़लत लोगों को दूर भागती रहे,
सब मिल-जुल कर हिन्दी के लिए काम करें,
और विश्व पटल पर और हिन्दी का नाम करें.

Wednesday, May 19, 2010

बारह लाख लिए शादी में,दुलहिन देखें सन्न हो गये(एक हास्य ग़ज़ल)-----(विनोद कुमार पांडेय)

नोट गिने प्रसन्न हो गये
चिरकुट थे, संपन्न हो गये

बारह लाख लिए शादी में
दुलहिन देखें सन्न हो गये

माथा पकड़ लिए पगला कर
अलग दृश्य उत्पन्न हो गये

देख तमाशा लड़की वाले
लाठी लेकर ठन्न हो गये

ताऊ,चाचा,मौसा,मामा
भँवरा जैसे भन्न हो गये

उधर बराती अलग मौज में
खा-पी कर सब टन्न हो गये

Thursday, May 13, 2010

हम तुम्हारे लिए जाल बुनने लगे,तुम हमारे लिए फंदे कसने लगे-----(विनोद कुमार पांडेय)

हम तुम्हारे लिए जाल बुनने लगे,
तुम हमारे लिए फंदे कसने लगे,

आज फ़ितरत यहीं आदमी की हुई,
आदमी आदमी को ही डसने लगे.

ना दुआएँ रही याद माँ-बाप की,
हर तरक्की पे अपने हरषने लगे.

जिस पिता ने गले से लगा कर रखा,
अब वहीं इक झलक को तरसने लगे.

स्नेह आदर में ऐसी मिलावट बढ़ी,
प्रेम की ओट में लोग झंसने लगे.

जंगलों की जगह पर शहर बन गया,
जानवर बस्तियों में भी बसने लगे.

अहमियत प्यार की,झूठ पर है टिकी,
सो दिखावे में ही लोग फँसने लगे.

हाले दिल भी बयाँ,मैं करूँ तो कहाँ,
मेरे अपने ही जब मुझपे हँसने लगे.

Friday, May 7, 2010

एक सुंदर सी कविता के साथ सभी ब्लॉगर्स साथियों को मातृ दिवस की अग्रिम बधाई-----(विनोद कुमार पांडेय)

मातृ दिवस के उपलक्ष्य में इस कवि ने अपने शब्द माँ के नाम अर्पित किया है,जीवन मे एक ऐसा नाम जिससे हम कभी भी अलग नही हो सकते,और वो शब्द है "माँ".आज एक बार फिर आपके सामने प्रस्तुत है मेरी यह कविता...

माँ,ममता का असीम श्रोत हैं,

माँ,इस नश्वर जीवन की,अखंड ज्योत हैं.


माँ,एक पवित्र नाम है,

माँ,के बिना जिंदगी गुमनाम है.



माँ,आँचल की छाया देती रही कठोर धूप में,

माँ,निहित है,परमात्मा के स्वरूप में.


माँ,बचपन के कठिन डगर पर,गोदी में ज़कड़ कर,

माँ,जिसने चलना सिखाया, उंगली पकड़ कर.


माँ,जिसने हमारे खुशी के लिए आँसुओं को भी पीया है,

माँ,जीवन के अंधेरे पथ पर राह दिखाने वाली दीया है.


माँ,जिसने मुस्कुरा कर अपने हाथ से पहली कौर खिलाई,

माँ,जैसे कड़ी धूप,तपती गर्मी की शीतल परछाई.


माँ,बचपन के चंचल,मोहक,मुस्कान की जननी है,

माँ,जिससे यह संपूर्ण सृष्टि बनी है.


माँ,हमारे मूक बचपन की भाषा है,

माँ,जिसकी कोई नही परिभाषा है.


माँ,बसी है,ममतामय हर एक पल में,

माँ,बसी है,पृथ्वी,आकाश,वायु और जल में.


माँ,ही मूल में,माँ ही आधार है,

माँ,के लिए सारी जिंदगी उधार हैं.


माँ,समस्त रिश्तो से परे है,

माँ,दिशाहीन जीवन में लक्ष्य भरे हैं.


माँ,किलकारी भरे, वात्सल्य का दर्पण है,

माँ,हमारी हर खुशी, तुम्हे अर्पण है.



माँ,जिसके लिए केवल मातृ दिवस ही सुखाय नही है,

माँ, जिसका दुनिया में,कोई पर्याय नही है.


माँ की यादों के साथ फिर एक बार,

बचपन मे आगमन करता हूँ.

और विश्व के समस्त माताओं को,

मातृ दिवस पर, सिर झुका कर हार्दिक नमन करता हूँ.

Saturday, May 1, 2010

अपने ही समाज के बीच से निकलती हुई दो-दो लाइनों की कुछ फुलझड़ियाँ-5-----(विनोद कुमार पांडेय)

ग्रह,नक्षत्र अनुकूल हो,मंदिर जाते रोज|
घर में माँ भूखी रहे,बाँट रहे वो भोज||

सब अपने में लीन है,अजब -गजब हालात|
ऐसे तैसे काटते,बाबू जी दिन रात||

बस रोटी दो जून की, हिस्से दादी के |
कंप्यूटर ने छीन ली,किस्से दादी के||

नाती पोते समझते,हैं उनको अब भार| |
अंधे दादा की छड़ी,का बोलो आभार||

भाई और बहन हुए,आज हृदय से दूर|
अंजाने रिश्तों की देखो,चर्चा है मशहूर||

बेदम छोटी बात में,सब इतने मगरूर|
एक जगह रहते मगर,दिल हैं कोसो दूर||

यह समाज का रूप है,बदल रहा संसार|
गैरों को अपना रहें,अपनो को दुत्कार||

ऐसे प्राणी का भला,कैसे होगा यार|
जो ये भी ना जानते,होता क्या परिवार||