Sunday, July 5, 2009

इंसान की खोज

आज के परिवेश मे एक अदद इंसान की खोज,

बंद दीवारों मे खुला आसमान ढूढ़ने चला था,
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था.

दुनियाँ जहाँ देखने में सब कुछ हरा है,
सुख एवम् दुख का पर्याप्त साधन भरा है,
सच्चाई जहाँ, बस किताबों में हैं,
मुस्कुराहट तो अब बस नकाबों में हैं,
लोगों के चेहरों पर मुस्कान ढूढ़ने चला था,
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था.

दर्द भुला दिए थे,जो भी दर्द मिले,
राह के साथी हज़ारों हमदर्द मिले,
अंजान था,कि सब जख्म देखने वाले थे,
घाव भरने नही,वो तो बस कुरेदने वाले थे,
मैं वहीं पर मरहमी समान ढूढ़ने चला था,
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था.

रोज जहाँ बदल जाते हैं,रिश्ते,
कभी कभी हैरान हो जाते हैं,फरिश्ते,
मोह,ममता जहाँ विक्षिप्त पड़ा है,
स्वार्थ,लालच मे मानव लिप्त पड़ा है,
वहाँ मैं रिश्तों की अहमियत का ज्ञान ढूढ़ने चला था,
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था.

जहाँ रोजाना कुंठित होती है,ग़रीबों की आशाएँ,
अपमानित हो रही हैं,देश धर्म और भाषाएँ,
जात-पाँत का जहर घुल रहा है,समाज मे,
आत्माएँ मर रही हैं,बेईमानो के इस राज मे,
बेपरवाह होकर मैं,ईमान ढूढ़ने चला था,
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था.

दोस्ती के नाम पर नफ़रत के बीज बोते हैं,
प्यार, भावनाएँ और अहसास जहाँ रोते हैं,
जहाँ सामाजिक ठेकेदारों को पुरस्कार दी जाती हैं,
जहाँ जन्म से पहले कन्याओं को मार दी जाती हैं,
उन्हीं पत्थर की मूरतों में मैं जान ढूढ़ने चला था,
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था.

फिर भी बैठ कर मैं,करता हूँ उम्मीद,
होगी ज़रूर कभी इंसान की दीद,
अरमानों की होली कभी तो बंद होगी,
कभी तो हमें इंसानियत पसंद होगी,
तब फिर से ,मानवीय पहचान ढूढ़ने चलूँगा,
मायूस नही लौटूँगा तब,जब इंसान ढूढ़ने चलूँगा.

23 comments:

अविनाश वाचस्पति said...

इतना भी बेइंसान नहीं है जमाना
इंसानियत जिंदा है गूंज रहा तराना

अनिल कान्त said...

मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था.

आप बहुत अच्छा लिखते हैं

ओम आर्य said...

insaan dhudhane ki kwahish liye chala mai kya bat kahi hai aapne .
bahut hi sundar bahut hi achchha ................ek bhawanao se bhari kawita..........sundar

दिगम्बर नासवा said...

सच कहा है....... इस दुनिया में insaan को dhoondhna ही सबसे मुश्किल कम है........... लाजवाब रचना

Manish Kumar said...

आज के समाज का सही दृष्टांत एक प्रवाहपूर्ण कविता के माध्यम से। आपको पढ़ना अच्छा लगा।

निर्मला कपिला said...

अंजान था,कि सब जख्म देखने वाले थे,
घाव भरने नही,वो तो बस कुरेदने वाले थे,
मैं वहीं पर मरहमी समान ढूढ़ने चला था,
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था.
क्या सही और आज के यथार्थ पर ये सुन्दर अभियक्ति है

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

"बंद दीवारों मे खुला आसमान ढूढ़ने चला था,
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था"
इस सुन्दर रचना के लिये बहुत बहुत धन्यवाद...

Rohit Khetarpal said...

"राह के साथी हज़ारों हमदर्द मिले,
अंजान था,कि सब जख्म देखने वाले थे,
घाव भरने नही,वो तो बस कुरेदने वाले थे,
मैं वहीं पर मरहमी समान ढूढ़ने चला था,
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था."
Very true and heart touching......I liked the most among all.
Nice comments through poem.....

Prem Farukhabadi said...

बंद दीवारों मे खुला आसमान ढूढ़ने चला था,
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था.
vinod bhai bahut laajawab!!

Murari Pareek said...

अद्भुत बहुत ही मार्मिक बात है! इंसान ढूंढना !! आप कहाँ रहते हैं?? क्या ये भीड़ इंसानों की नहीं है?? क्या ये मात्र चोला इंसानों का है??
क्या बात करते हो कितने सूटेड बूटेड इंसान है !! पहले के जमाने से कहीं सुन्दर सभ्य !! विनम्र भाषी मुस्कुरा के बोलने वाले !! पहले के जमाने के लोग सीधी कड़ी बात करते थे, आप को अच्छी लगे या न लगे!! आज का सभ्य इंसान बोलने से पहले मुस्कुराता है बोलने के बाद मुस्कुराता है ! और आपके ओझल होने के बाद तो ठहाके लगा लगा के हंसता है !!

anil said...

राह के साथी हज़ारों हमदर्द मिले,
अंजान था,कि सब जख्म देखने वाले थे,
घाव भरने नही,वो तो बस कुरेदने वाले थे
सुन्दर दिल को छू लेने वाली रचना .

admin said...

आपकी यह कोशिश कामयाब हो, यही कामना है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

संजीव गौतम said...

shaandaar rachanaa hai. aapake paas saghan vichaar hain. aap ghazalen bahut achchhee kahenge.

Unknown said...

bahut dil ko chune vali poem ki rachna ki hai aapne.App bahut accha likhete ho.May god bless you!

Atul Verma said...

Ultimate bhai.....

Razi Shahab said...

bahut achcha

cartoonist anurag said...

बंद दीवारों मे खुला आसमान ढूढ़ने चला था,
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था.


vinod ji......
bahut khoob....
main to aapka kayal ho gaya......

हरकीरत ' हीर' said...

बंद दीवारों मे खुला आसमान ढूढ़ने चला था,
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था.

वाह....भाव पूर्ण सशक्त रचना .....!!

vijay kumar sappatti said...

sir

amazing poem ... itni shashakt rachna , bahut dino ke baad padha raha hoon..

mera salaam kabul karen..

meri badhai sweekar karen..
Aabhar
Vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/2009/07/window-of-my-heart.html

Science Bloggers Association said...

आपकी यह खोज कामयाब हो, यही कामना है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Girish Kumar Billore said...

wah wah
मायूस लौट आया मैं,इंसान ढूढ़ने चला था.

कडुवासच said...

... बेहद प्रभावशाली व प्रसंशनीय अभिव्यक्ति !!!!

सुशील छौक्कर said...

वाह जी वाह आप तो कमाल का लिखते है। और इस दुनियादारी में इंसान को ढूढते है। बहुत मार्मिक लिखा है आपने। कभी हमने भी कहा था।
पत्थरों के जहाँ में इंसानियत को ढूढता हूँ
मैं ना जाने क्यों भगवान को ढूढता हूँ॥