पिछले कई दिनों से देश में भ्रष्टाचार,नैतिकता,मानव मूल्य,संस्कार इत्यादि शब्दों पर काफी बहस हो रहें है,अपने अतीत और परिवेश का हुए उल्लेख करते मैं भी चर्चा में शामिल होना चाहता हूँ और अपना पक्ष रखता हूँ कि इसके क्या वजह हैं और सुधार कैसे हो सकता है । रचना अच्छी लगे तो अपनी प्रतिक्रिया दीजियेगा । धन्यवाद !!
संस्कार किससे सीखे हम लोग,
जब अपना ही देश निराला है।
मानव मुल्य गिर रहें हैं क्यों,
सोचो कहाँ पे कहाँ गड़बड़ झाला है।|
अलगथलग है पिता-पुत्र क्यों,बच्चों की अपनी दुनिया,
जज्बातों के लिए जगह ना,ना ही वो अटूट रिश्ता,
स्वार्थ,काम और लालच में जब मानव लिप्त हुआ,
प्यार और अपनेपन के बंधन से मुक्त हुआ,
भौतिक सुख की होड़ में आ कर,
हम सब ही ने रोग ये पाला है।
श्रवण कुमार और नचिकेता के जैसे अब कहाँ विचार,
सुनीति,कुंती के जैसी माँ,और पिता दशरथ सा प्यार,
लक्ष्मण जैसा भाई विरले भाग्यवान ही पाता है,
रघुनन्दन के आदर्शो को कौन कहाँ अपनाता है,
संस्कार रह गए किताबी क्यों,
दाल में कुछ तो पक्का काला है।
सावित्री सी पति धर्मिता,उर्मिला सा त्याग कहाँ,
कर्ण के जैसा मित्र नहीं अब,कान्हा सा अनुराग कहाँ,
एकलव्य सा शिष्य भी नहीं,परशुराम आचार्य कहाँ,
राणा जैसा देश भक्त और ,दासी पन्नाधाय कहाँ,
एक बार इतिहास अगर दोहराए,
सुखमय होगा कल,जो आने वाला है।
बने नकलची हम पश्चिम के तो उसका परिणाम मिला,
बात न माने हम अतीत की, तो उसका भी दाम मिला,
व्यस्त रहे सब नव पीढ़ी को नैतिकता समझाने में ,
हर रिश्तों में चुक रह गई अपना फर्ज निभाने में,
जो अतीत से सीख लिए और बांटें है,
उनके घर मिट गया अँधेरा सिर्फ उजाला है |
2 comments:
संस्कार बॉंटने का समय ही तो नहीं है आज
संस्कारों की परिभाषा बदली है इन दिनों !
बढ़िया लिखा !
Post a Comment