Wednesday, August 29, 2018

एक शीशी गुलाब जल-कवि दीपक श्रीवास्तव जी द्वारा


साहित्य किसी भी समाज के पोर-पोर में बसी हुई संस्कृति की पहचान है। किसी भी देश अथवा समाज को भौतिक रूप से समझने के लिए यात्रा एक माध्यम अवश्य है किंतु समाज की पूर्ण पहचान वहां के साहित्य द्वारा ही है। रहन सहन, जीवन शैली, खानपान, विचारों का आदान-प्रदान, शिक्षा पद्धति, लोक व्यवहार एवं संस्कृति, खेल एवं मनोरंजन, बच्चों की परवरिश, घर की साज सज्जा, पूजन पद्धति इत्यादि अनेक ऐसे विषय हैं जो समाज के साहित्य द्वारा ही भली प्रकार से समझे जा सकते हैं। यदि साहित्य रचना सरस सुगम्य कविता अथवा गीत शैली में हो तो यह जन भाषा का हिस्सा बन जाती है तथा युगों-युगों तक समाज का मार्गदर्शन करती रहती है। विनोद पाण्डेय द्वारा रचित "एक शीशी गुलाब जल" अपनी सहज अभिव्यक्ति के माध्यम से भारतीय समाज के अनेक पहलुओं का प्रतिनिधित्व करती है।
आज के भौतिकवादी युग में जहां धन लोलुपता की माया ने समाज के एक बड़े हिस्से को इतना प्रभावित किया है कि लोग इस आंधी में हित-अहित भी नहीं देख पाते वहां पुस्तक के प्रारंभ में ही माता सरस्वती से श्रद्धा परक ज्ञान एवं रूढ़ियों तथा आडंबरों से दूर रहने की कामना समाज को अपने मानवीय मूल्यों का एहसास दिलाती है दिखावे से दूर सत्य की परिकल्पना को साकार करती है। इतना ही नहीं यह झूठे आडंबरों से समाज को मुक्त करने एवं सत्य की प्रतिस्थापना हेतु बदलाव की भी पक्षधर है।
जीवन में सुख भला किसे प्रिय नहीं होता। सुख की कामना में अधिकतर व्यक्ति दुख के महत्व को कमतर आता है जबकि सच्चाई यह है कि दुख के बिना व्यक्ति सुख के महत्व को समझ ही नहीं सकता। मैंने कभी अपनी एक कविता में लिखा था- "तुम कहते हो भौतिकता है, जीवन अविरल दौड़ रहा है। धन लिप्सा की आंधी में मानव का मन भी डोल रहा है। पर पापों के बढ़ने से ही होता ईश्वर का अवतार। बिन पापों के कैसे पूजे ईश्वर को सारा संसार।" दुख से सुख तक की यात्रा को जीवन का संघर्ष कहते हैं। यही परिवर्तन प्रकृति में भी है और मनुष्य के जीवन में भी। पतझड़ की अनुभूति के बिना मधुमास के सौंदर्य का आनंद नहीं तथा खोने का दर्द जाने बिना मिलने के सुख की सच्ची अनुभूति नहीं हो सकती। यही मानव जीवन का शाश्वत दर्शन है। इतने गूढ़ रहस्य को कविता में सरलतम रूप में प्रस्तुत करने की क्षमता उसी कवि की रचनाओं में हो सकती है जिसने इस मर्म को अपने हृदय के आभ्यंतर से अनुभव किया हो।
वस्तुतः मनुष्य का सहज स्वभाव प्रेम एवं आनंद का है किंतु मनुष्य अपने अंतर्मन की बात पर बुद्धि को वरीयता देकर अपने वास्तविक चेहरे के ऊपर मुखोटे लगा लेता है तथा इन्हीं मुखौटों के कारण अपने निज स्वरूप से दूर वह अहम की प्रवृत्ति विकसित करता है और दूसरों को छोटा अथवा नीचा साबित करने की भेड़चाल में सम्मिलित हो जाता है। समाज को दिशाहीनता से बचाने के लिए तथा उसे प्रगति के मार्ग की ओर प्रवृत्त करने हेतु अनेक बार कठोरता बरतने की भी आवश्यकता पड़ती है। इसी तथ्य को "एक शीशी गुलाब जल" में प्रकशित व्यंग रचनाएं सुंदर सहज एवं प्रभावी तरीके से साकार करते हुए समाज में मौजूद दिखावटीपन पर करारा प्रहार करती हैं। इतना ही नहीं वह यह भी दर्शाती हैं कि आज समाज कितना गतिशील हो चुका है कि किसी को अपनों से मिलने का भी समय नहीं है। हर कोई जीवन में सफलता तो फटाफट पा लेना चाहता है किंतु संघर्ष के लिए तैयार नहीं है।
श्री विनोद पाण्डेय जी ने शिक्षा के बदलते स्वरूप पर भी चिंता व्यक्त करते हुए द्रोणाचार्य का उदाहरण लेकर एक काल्पनिक चित्र खींचा है जो शिक्षा के गिरते मूल्यों की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट कराता है। वर्तमान परिवेश में आपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्तियों का समाज के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन होना चिंता का विषय है क्योंकि इससे समाज सिर्फ पतन की ओर जाता है। इसका जिम्मेदार कौन है- हम स्वयं इसके जिम्मेदार हैं तथा जिम्मेदार हैं समाज के वरिष्ठजन जो सक्षम होते हुए भी इसका विरोध नहीं करते तथा समाज को पतनोन्मुख होते हुए देखते रहते हैं। कवि ने भीष्म पितामह का उदाहरण लेकर अत्यंत नैसर्गिक एवं सहज भाव से इस ओर ध्यान आकृष्ट कराया है।
यूं तो जीवन में अनेक पड़ाव आते हैं किंतु किशोरावस्था एवं युवावस्था के बीच का समय अति महत्वपूर्ण है जब व्यक्ति के अंदर उमंगों की उड़ान होती है, अल्हड़ता होती है, सम्वेदनाओं के ज्वार होते हैं। प्रेम दिवस अर्थात वैलेंटाइन डे का मस्ती भरा चित्रण एवं परीक्षा कक्ष से बाहर निकलने का उमंग इन्हीं भावनाओं की सजीव अभिव्यक्ति है।
कहते हैं जब तक जीवन है तब तक इच्छाओं का अंत नहीं। जब व्यक्ति अपनी इच्छाओं को वश में कर लेता है तब उसके अंदर देवत्व का उदय होना शुरू हो जाता है। इच्छाएं बहुत है कितनी है कुछ पता नहीं। "एक शीशी गुलाब जल" में जिन्न पर आधारित कविता व्यंग रूप में मानवीय इच्छाओं के पहाड़ का सशक्त चित्रण है जिनके आगे जिंदगी बेबस है। यही अंतहीन इच्छाएं व्यक्ति के अंदर रावण तत्व को जगा देती हैं जिसके बाद व्यक्ति अच्छे बुरे का ख्याल छोड़कर इच्छा पूर्ति हेतु किसी भी स्तर तक गिरने को तैयार है। त्रेता युग में रावण के विनाश के लिए भगवान श्री राम का अवतार हुआ था किंतु वर्तमान में मनुष्य अपने मन में इतने रावणों को लिए घूम रहा है उससे पार पाना बहुत कठिन होता जा रहा है। परंतु कवि के अंदर ईश्वर में अटूट विश्वास है तथा वह उनकी प्रतीक्षा में गुहार लगा रहा है।
विनोद जी को मैं अनेक वर्षों से जानता हूं। वह भी एक बेटी के पिता हैं तथा मेरी भी एक नन्हीं पुत्री है। दोनों की पुत्रियों में लगभग 6 माह का अंतर है। अतः पुत्रियों को लेकर हम दोनों की संवेदनाएं एवं परिस्थितियां लगभग एक सी हैं। अनेक कवियों ने माता एवं पिता का पुत्र अथवा पुत्री के प्रति प्रेम का सुंदर चित्रण किया है किंतु मेरे सामने पहली ऐसी रचना आई है जब दिन भर की थकान से मां चूर है तथा नन्हीं बेटी मां के साथ खेलना चाहती है तब एक पिता अपनी नन्हीं बेटी को अत्यंत मार्मिक भाव से मां की स्थिति का अनुभव कराता है।
समाज के विविध रूप रंग हैं। कहीं उमंगे हैं कहीं अल्हड़ता है तो कहीं गंभीरता एवं जिम्मेदारियों का बोध भी है। कहीं बाल-मन है तो मां की ममता भी है। कहीं पिता होने की अनुभूति है तो प्रेमी होने का सुख भी है। कहीं सामाजिक कुरीतियां हैं तो समाज निर्माण के प्रयास भी हैं। कहीं मन पर बुद्धि हावी है तो अंतश्चेतना का एहसास भी है। इतने विविध रंगों को एक पुस्तक में संजोकर, समेट कर लाने का जो महान कार्य श्री विनोद पाण्डेय जी ने किया है वह अद्भुत है। पुस्तक की लेखन शैली अत्यंत सरल एवं सहज है जो साधारण जनमानस के हृदय में सीधे उतरने वाली है। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि "एक शीशी गुलाब जल" जन जन के हृदय में सदा के लिए अपना स्थान बनाएगी तथा सुंदर समाज की परिकल्पना को साकार करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देगी।
- दीपक श्रीवास्तव 




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