तुम तरसा कर चले गए
ओ बादल,क्या आना तेरा, झलक दिखा कर चले गए |
हम बैठे थे आस लगाए , तुम तरसा कर चले गए ||
तुमको देखा मन हरषाया ,
प्यास दबी थी उसे जगाया |
सूखे सावन में तड़पा था ,
जो दिल उसने शोर मचाया |
लेकिन तुम कुछ समझ न पाए, आग लगा कर चले गए || हम बैठे थे .....
क्या है प्रेम समझ पाते तुम ,
थोड़ी देर ठहर जाते तुम |
धरती भी हँस लेती थोड़ी ,
काश जरा सा मुस्काते तुम |
पहले से उदास बैठी थी, उसे रुला कर चले गए || हम बैठे थे .....
बहुत खुश हुए थे, किसान भी ,
झुके हुए तन गए धान भी |
तुम्हें देखकर लगे झूमने ,
बूढ़े ,बच्चें और जवान भी |
लगता था बरसोगे लेकिन , बस भरमा कर चले गए || हम बैठे थे .....
कलियों ने खुशबू बिखरायी ,
तुमको खुशबू रास न आयी |
बिजली रानी तड़प-तड़प के,
अपने दिल की व्यथा सुनायी |
शायद सब के सब प्यासे थे, तुम तड़पा के चले गये || हम बैठे थे .....
नदियाँ खाली पड़ी हुई थी ,
आँखें तुम पर गड़ी हुई थी |
हाथ उठा कर तुमको पाने ,
सारी बस्ती खड़ी हुई थी ||
तुमने फिर निराश कर डाला, ख्वाब दिखा कर चले गए || हम बैठे थे .....
आ जाओ फिर इंतजार है ,
तुमसे ही जग में बहार है |
अबकी थोड़ी देर ठहरना ,
प्यासी धरती बेकरार है |
नदी,फूल,हम सब प्यासे हैं , तुम इठला कर चले गए || हम बैठे थे .....
(विनोद पांडेय )
(गीत संग्रह "एक शीशी गुलाब जल" से )
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