Monday, July 15, 2019

तुम तरसा कर चले गए - विनोद पांडेय

तुम तरसा कर चले गए 


ओ बादल,क्या आना तेरा, झलक दिखा कर चले गए | 
 हम बैठे थे आस लगाए , तुम तरसा कर चले गए || 

तुमको देखा मन हरषाया ,
प्यास दबी थी उसे जगाया | 
सूखे सावन में तड़पा था ,
जो दिल उसने शोर मचाया |
लेकिन तुम कुछ समझ न पाए, आग लगा कर चले गए ||  हम बैठे थे ..... 


क्या है प्रेम समझ पाते तुम ,
थोड़ी देर ठहर जाते तुम |
धरती भी हँस लेती थोड़ी ,
काश जरा सा मुस्काते तुम | 
पहले से उदास बैठी थी, उसे रुला कर चले गए || हम बैठे थे .....  


बहुत खुश हुए थे, किसान भी ,
झुके हुए तन गए धान भी |
तुम्हें देखकर लगे झूमने ,
बूढ़े ,बच्चें और जवान भी | 
लगता था बरसोगे लेकिन , बस भरमा कर चले गए || हम बैठे थे ..... 


कलियों ने खुशबू बिखरायी ,
तुमको खुशबू रास न आयी |
बिजली रानी तड़प-तड़प के,
अपने दिल की व्यथा सुनायी  |

शायद सब के सब प्यासे थे, तुम तड़पा के चले गये || हम बैठे थे ..... 


नदियाँ खाली पड़ी हुई थी ,
आँखें तुम पर गड़ी हुई थी |  
हाथ उठा कर तुमको पाने ,
सारी बस्ती खड़ी हुई थी || 

तुमने फिर निराश कर डाला, ख्वाब दिखा कर चले गए ||  हम बैठे थे ..... 

आ जाओ फिर इंतजार है ,
तुमसे ही जग में बहार है | 
अबकी थोड़ी देर ठहरना ,
प्यासी धरती बेकरार है | 

नदी,फूल,हम सब प्यासे हैं , तुम इठला कर चले गए ||  हम बैठे थे ..... 

(विनोद पांडेय )

(गीत संग्रह "एक शीशी गुलाब जल" से )




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