प्रभु जी का नाम जपते हुए दिल्ली से बनारस के लिए रवाना हुआ । वैसे तो हम हर यात्रा से पहले प्रभु जी का ही नाम लेते हैं पर रेलगाड़ी से यात्रा करते हुए उनका नाम जपना नितांत आवश्यक हो जाता है क्योंकि जब तक आप रेलगाड़ी में होते हैं तब तक आप प्रभु जी के हवाले होते हैं।यकीन मानिये अगर आप सकुशल गंतव्य स्टेशन पर बोरिया-बिस्तर लेकर उतर जाते हैं तो यह उनकी ही कृपा है ।
यह प्रभु जी की ही कृपा थी कि हम स्टेशन पर आये और सामने हमारी ट्रेन भी खड़ी मिली ,कृपा इसलिए कहा कि अब तक ऐसे कई अनुभवों में इंतज़ार का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान रहा ।खैर स्टेशन पर गाड़ी देखकर पसीने अपने आप सूख गए,मैं प्रसन्न भी था और आश्चर्यचकित भी ,आश्चर्य की मात्रा प्रसन्नता से चार गुना अधिक थी । हम मंगलयात्रा की कामना करने वाली देवी की मधुर आवाज को कान से सुनकर ह्रदय में सहेजते हुए बोगी में दाखिल हुए । धर्मपत्नी जी की मेहरबानी थी ,दोनों हाथों में अटैची को थामे हुए हम पति कम,कुली ज्यादा नजर आ रहे थे ,ऊपर से ठण्ड में पसीना ऐसे निकल रहा था जैसे अभी-अभी गंगास्नान करके निकले हैं ।पसीना इसलिए भी निकल रहा था कि ,उसको भी बहुत दिन बाद आज मौका मिला था ,घर से लेकर ऑफिस तक एसी । पसीना का भी दम घुट रहा था । आज मौका मिला निकलने का तो क्यों शर्म करें ।
परिवार को जैसे ही ट्रेन में दाखिल किया कि भीड़ टूट पड़ी,उस पल ऐसा लगा जैसा लोग मेरे ही चढ़ने का इंतज़ार कर रहे थे । हम दिमाग के मामले में कमजोर नहीं थे ,ऊपर से ट्रेन में यात्रा भी खूब किये थी । वही सब अनुभव काम आ गया । अंदर जाने के लिए ज्यादा जोर नहीं लगाना पड़ा ,केवल एक भारी भरकम आदमी को तलाश कर उसके सामने आना पड़ा और बैलैंस बनाकर लक्ष्य की ओर गतिमान होना पड़ता है ,इस छोटे से अभ्यास से मैं ट्रेन के अंदर ही नहीं बल्कि अपने सीट तक पहुँच गया ।भीड़ से एक तरफ खड़ी हुई बीवी की नजरें मुझे तलाश ही रही थी कि मैं हिलते-डुलते प्रकट हो गया ।
भारतीय रेलयात्री का यह महत्वपूर्ण अधिकार है कि यदि उसका बर्थ लोअर है तो वो पहले आकर अपना सारा सामान बर्थ के नीचे ठूस सकता हैं और बाद में आने वाले यात्री को इधर-उधर सामान रखने की सलाह दे सकता है ।आज हमारे सीट पर बैठे एक महाशय जी ने इस महत्वपूर्ण अधिकार का प्रयोग मेरे आने से पूर्व कर लिए ,अतः मुझे देखकर उनका मुस्कुराना जरुरी कार्यवाही में शामिल था। मेरा अपर बर्थ था और मेरे पास दो अटैची थी और लोअर बर्थ के नीचे जितनी जगह थी उसमें तो ठीक से चप्पल भी नहीं आ सकती थी ।मैं उन इंसानों में शामिल था जो चप्पल को सिर के पास रखकर सोना पसंद नहीं करते हैं अतः मुझे तो चप्पल रखने के लिए भी जगह चाहिए थी ।
मैंने महोदय जी को इशारा किया कि वो अपना कुछ सामान निकाल लें परंतु मेरे इस इशारे को नजरअंदाज कर उन्हें दाँत दिखाना ज्यादा पसंद था । फिर भी अगले ने अपने सामने वाली मैडम जी से बात कर मेरी एक अटैची को ठिकाने लगवा दिया और दूसरी अटैची दोनों सीटों के खाली मैदान में रखवा कर बड़े कॉन्फिडेंस से बोले की ट्रेन चलने दीजिये सब सही हो जायेगा ।वैसे तो शक्ल-सूरत से वो कैरेबियाई दीप के प्राणी मालूम पड़ते थे पर मुँह खोलते ही यह समझने में समय न लगा कि महोदय यूपी निवासी हैं । इस नाते भी मैंने उनके आश्वासन पर भरोसा कर लिया और धन्यवाद कह कर उनके ही बगल में बैठ गया ।धर्मपत्नी जी सामने मैडम जी के बगल में आराम से बैठ गयीं ।
ट्रेन सामान्य लोगों के लिए बतियाने का बड़ा उत्तम स्थान माना जाता है इसलिए कि सामान्य लोग खाली होते हैं ।असामान्य लोगों के पास आधुनिक मनोरंजन के कुछ अन्य साधन भी होते हैं जिसमें इंसानों की जरुरत नहीं होती है । हम सामान्य लोगों के बीच में बैठे थे अतः बातचीत होनी ही थी बस शुरुआत कौन करे ,इस बात का लगभग इंतज़ार सब कर रहे थे ।इन महत्वपूर्ण स्थानों पर कभी-कभी बड़े ही अजीबोगरीब प्रश्नों से बातचीत की शुरुआत होती है,जो यहाँ भी हुआ । हमारे बगल में बैठे महोदय जी ने प्रश्न किया ,ट्रेन कितने बड़े चलेगी । मन तो आया की बोल दूँ टिकट पर लिखा है पर विचार आया कि अभी एक अटैची सेट नहीं हो पायी है ।उनके प्रश्न में किसी ने रूचि नहीं दिखाई ,बजाय बगल से गुजरते हुए एक चाय वाले ने ,उसने कहा कि बस चलने वाली है । भाई साहब तो प्रश्न ट्रेन का टाइम जानने के लिए तो किये ही नहीं थे अतः थोड़े निराश हुए मगर नहीं हारे थे। अबकी बार उन्होंने सीधा-सीधा मुझसे सवाल दागा कि कहाँ जा रहे हो भाई साहब । मैंने सिर्फ बनारस बोलकर बात ख़त्मकरने की कोशिश की ,लेकिन यह क्या वो शुरू हो गए, लगे बनारस की खूबियाँ बताने,उनका मुख्य उद्देश्य अपनी बातचीत शुरू करने का था, साथ ही साथ बनारस के सामान्य ज्ञान पर अपनी पकड़ भी दिखाना चाहते थे । ऐसे लोग लगभग हर जगह मिल जाते हैं । ज्ञान देना हम भारतियों का प्रमुख गुण हैं जिसके लिए हम किसी से एक पैसे नहीं लेते बस सामने वाले को थोड़ा धैर्य रखना होता है और मुँह बंद करके रखनी होती है । क्योंकि मुँह खोलने पर आप ज्ञान देने वाले के ज्ञान को चुनौती देते हो जो एक ज्ञानी व्यक्ति स्वीकार नहीं करता है । पहले के और आज के ज्ञानी पुरुषों में यहीं अंतर है पहले लोग शास्त्रार्थ करना पसंद करते थे अब लोग इसे समय की बर्बादी मानते हैं वैसे भी आजकल के लोगों के पास समय की भरपूर कमी रहती है ।
ट्रेन में बातचीत का सिलसिला चलता रहा और लगभग सभी लोग जिन्होंने उन महोदय की बातें सुनी स्वीकार किया कि वो महोदय बहुत बड़े विद्वान हैं । जिन्होंने नहीं सुनी उनको भी लग रहा था कि आदमी में कुछ दम तो है । मुझे उनकी बातों से ज्यादा रूचि मुझे अपनी अटैची रखवाने में थी । बातचीत के दौरान और लोग भी थोड़े सहज हो गए तो मुझे स्वयं पहल करके अपनी अटैची ठिकाने लगनी पड़ी । जो महोदय पहले आश्वासन दिए थे वो तो अब अटैची क्या मुझे भी भूल चुके हैं । अब उनके लिए मैं एक श्रोता था जो उनके सामान्य ज्ञान पर आश्चर्य हो कर आँखें बड़ी-बड़ी कर लेता था और वो मेरे इस क्रिया को इस बात का उत्तर समझते थे कि मैं मान रहा हूँ कि वो ज्ञान के सागर हैं ।
ट्रेन ने धीरे-धीरे गति पकड़ी ,सब अपने अपने स्टेटस के अनुसार खाने पीने की तैयारी में लग गए । हमने भी मिडिल क्लास के हिसाब से कुछ खाया-पीया । सब धीरे-धीरे सोने के लिए अपना सीट लगाने लगे थे कि इसी बीच सूप वाले की एंट्री होती है। सूप अब धीरे-धीरे मिडिल क्लास में आ रहा है अतः हमारे बोगी के ज्यादातर लोगों ने इस पेय पदार्थ का सेवन का लुत्फ़ उठाया । हमारे बगल में बैठे विद्वान भाई साहब (बातचीत में पता चला बाबू साहब हैं ) जी ने भी सूप ख़रीदा साथ-साथ सूप की फायदों के बारे में चर्चा भी कर रहे थे ।अभी सिर्फ दो सिप ही लिए थे कि बात फंस गयी ,सूप वाले के पास दो हजार का चेंज नहीं था और इनके पास था लेकिन देना नहीं चाहते थे,मुझे इसपर आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि आजकल बहुत से लोगों के स्वभाव में ऐसी हरकत शुमार हो गयी है ।बहरहाल अब क्या हो । बाद में पैसे लेने के लिए न तो वो राजी थे और न तो सूप वाला ।सूप वाले भाई साहब ने सारे नोट गिना दिए तो कुल मिलाकर बारह सौ हुए और इनके पास तो दस रूपये भी नहीं थे ,हालाँकि ये पर्स दिखाने को तैयार नहीं थे । कुल मिलाकर मुझे तो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि आज ये मुफ्त का सूप पीने के मूड में हैं और सूप वाले बेचारे से तफ़री ले रहें हैं । दस मिनट में इधर उधर पूछने के बाद जब उसने कहा कि ठीक है साहब पैसे बाद में ले जाऊंगा तो साहब के चेहरे पर ओलम्पिक में गोल्ड मेडल जितने जैसी प्रसन्नता परिलक्षित हुई ।मेरी पत्नी को बहुत दुःख हुआ जब थोड़ी देर में ही उन्होंने खाना लाने वाले को साठ रुपये में दस-दस के छः नोट दिए ।यह सब करते हुए कई लोगों ने उनको देखा पर दूसरे के अर्थव्यवस्था कैसी चलती है, इस पर सबकी अलग-अलग राय है । हालाँकि सूप वाले के साथ सहानुभूति सभी की थी क्योंकि यह हमारे देश की विशेषता है ,बुराइयाँ देख लेते हैं और झेल भी लेते हैं ।
खाना खाने के बाद भी बाबू साहब बिस्तर पर जाने के लिए तैयार नहीं हुए तो हमें लोकतान्त्रिक व्यवस्था का सहारा लेना पड़ा क्योंकि नींद सभी को आ रही थी । सभी अपने अपने हिसाब से लेट गए । उन्हें भी लेटना पड़ा,कचौड़ियाँ पेट में करतब दिखा रही थी सो नींद आना तो संभव था नहीं बस मज़बूरी में लेटे हुए थे । उनका सारा बोरिया बिस्तर तो बर्थ के नीचे पड़ा था पर न जाने क्यों एक बैग अपने पास रखकर लेटे थे । मेरे सामान्य ज्ञान के अनुसार उनकी इस यात्रा में बैग की भूमिका महत्वपूर्ण थी ।बाबू साहब उठते-बैठते रहते थे ।खासकर उठते थे जब महिला की आवाज सुनायी देती थी और लेट तब जाते थे जब सूप वाला आसपास से गुजरता था ,उनको डर था कि वो पैसे न माँग ले ,उधर वो बेचारा इस बात भूल चूका था ।मेरी नींद आ-जा रही थी ,कहते हैं आप जब महान लोगों के बीच होते हो तो आपकी आँखें खुल जाती है ,मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था ।
कुछ देर ऐसे ही चलता रहा फिर कानपुर रेलवे स्टेशन आया । कचौड़ियाँ पच गयी थी सो बाबू साहब उठे,आस-पास की सीट पर ताक-झाँक करते हुए ,स्टेशन पर उतर गए ।यात्रा का पूरा आनंद यहीं ले रहे थे । तभी इन्हें कहीं समोसे दिखाई दिए ,बस लार टपकाते हुए पहुँच गए ,पाँच मिनट बारगेनिंग चली ।फिर दस रुपये के चार समोसे प्राप्त हुए । मगर फिर क्या वहाँ भी दो हजार का नोट । समोसे वाला पहले तो झल्लाया फिर कानपुरी अंदाज में बोला ,लाओ साहब देखते हैं । इन्हें ठेले के पास खड़ा कर इधर उधर घूमने लगा ।इनके जेब में दस रूपये थे पर जब तक ये अपना निर्णय बदलते,समोसे वाला ऐसे गायब हुआ जैसे गायब होने में डिप्लोमा होल्डर हो ।बाबू साहब को समोसा अब जहर जैसा लगने लगा ,पाँच मिनट और इंतज़ार किये । पर शायद दुकानदार छुट्टे लाने अपने घर चला गया था ।रेलगाड़ी को ये बात नहीं मालूम थी सो ठीक दस मिनट बाद सीटी बज गयी ,अब बाबू साहब को काटो तो खून नहीं ,खीझते हुए पाँच समोसे और उठा लिए ,पजामा संभालते हुए आगे-पीछे देखते हुए ट्रेन में चढ़ गए ।उनकी सारी चालाकी धरी रह गयी । जब डेढ़ बजे रात को लाइट जला कर उन्हें समोसे खाते देखा तब मुझे इस घटना का पता चला,मैंने भी उदास होने का मन बनाया यद्यपि हो नहीं पाया तो बस लाइट बुझाया और सो गया लेकिन बाबू साहब जागते रहे ,किसी उधेड़बुन में ,कुछ बड़बड़ाते रहे । सुबह उनके सो कर उठने से पहले यह बात पूरी बोगी में आग की तरह फ़ैल चुकी थी,लगभग सभी ने कम से कम एक बार इनके दर्शन कर यात्रा का पुण्य कमाया ।हमने तो ट्रेन से उतरते समय उनका एक फोटो भी ले लिया दिमाग कह रहा था कि ऐसे लोगों की याद बनी रहनी चाहिए ।
----विनोद पांडेय
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