चंद लम्हें थे मिले,भींगी सुनहरी धूप में, हमने सोचा हँस के जी लें,जिन्दगानी फिर कहाँ
मुक्तक -2
भारी है बीमारी न कोई दिख रहा इलाज
संवेदनाएँ मर रहीं ग़ायब है शर्म-लाज
हम गिन रहे हैं सिर्फ़ सियासत में कमी पर
पूरे समाज का ही पतन हो रहा है आज
~ विनोद पाण्डेय
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